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[ द्रव्यानुभव-रत्नाकर।
१२८] मेण देवलोए उववजति नो चेवण आयं भाव वत्तव्य या" लिये यह तप, संयम वाह्यरुप ज्ञान बिना पुण्यबन्धन का अथवा कितने ही लोग क्रियालोपी अर्थात् आचार करके हीन है। ज्ञान करके हीन हैं और गच्छकी लजा (शम) से सूत्र पढ़ते हैं बांचते हैं अथवा उसी शर्म से वृत पञ्चखानादि करते हैं, वे पुरुष द्रव्यनिक्षेपामें है। क्योंकि श्री अनुयोगद्वार सूत्र में ऐसा कहा है कि
"जे इमे समण गुण मुक्क जोगी छकाय निरणूकम्पाहया इव उद्या इव निरंकुशा घट्टामट्टानुप्योठा पंडूरण उरणा जिणाणं आणरहिय छन्दविहरिउणउभडंकाल श्रावस्स गस्स उवदं तितंलो गुत्तरियं दव्वा वस्सियं" - इसका अर्थ करते हैं कि-जिन पुरुषों को छः काय के जीवों की दया नहीं है, वह अश्व (घोड़ा ) की तरह उन्मत हैं। अथवा हाथीकी तरह निरांकुश है, और अपने शरीरको खूब धोना, मसलना, साबन लगाना, और अच्छे २ सफेद कपड़ा धोबी से धुलायकर पहनना अच्छी तरहसे शरीरका शृङ्गार करते हैं, और गच्छके ममत्वभाव में फसे हुए स्वइच्छाचारी बीतरागकी आज्ञाको भांजते (छोड़ते ) हुए जो कोई तपस्याआदि क्रिया करते हैं सो सब व्यनिक्षेपा में है। अथवा ज्योतिष अर्थात टेवा जन्मपत्री वा बर्ष बनाते हैं, ग्रह गोचर वताते हैं, और वैद्यक अर्थात नाड़ी का देखना औषध दवा करते, और अपनेको आचार्य, उपाध्याय, अथवा यति कहलातेहै, आ लोगोंकेपासमें अपनी महिमाकराते हैं वे लोग पत्रीबंध (तविक ९५ पर झोल फिरा हुआ)खोटे रुपयाके समान है, और घना सर भ्रमण अर्थात् जन्म मरण करनेवाले हैं। इसलिये वे लोग अवन्द है। क्योंकि श्री उत्तराध्ययमजीके अनाथीअध्ययनमें विस्तार
भार घना संसारमें
वन्दनीक
लिखा है वहांसे जानो।
निर्म विस्तारपूर्वक
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