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द्रव्यानुभव-रत्नाकर।]
[१३७ कहा कि स्वभाव, गुण ओर ज्ञान दर्शन, ऐसा कहा, सो इनमें किसोतरह का फर्क तो नहीं मालूम होता है, क्योंकि देखो जो स्वभाव है सो ही गण है, और जो गुण है सोही स्वभाव है, इसलिये ये दोनों एक ही है। तीसरा गुण हैं सोही ज्ञान, दर्शन है और ज्ञान, दर्शन वही जीवका गुण है। इसलिये इस एक वस्तु को तीन जगह भिन्न २ कहना युक्तिके बाहर और पीसेका पीसना है। ___ (उत्तर) भो देवानुप्रिय! इस स्याद्वादसिद्धांत श्रीवीतराग सर्वज्ञदेव की वाणीका रहस्य समझनेवाले अथवा समझानेवाले बहुत थोड़े हैं और तेरेको इस व्यानुयोगका यथावत् गुस्से उपदेश न हुआ, केवल छापेको पुस्तकसे बांचा और पीसेका पीसना कह दिया और तीनोंको एकही समझ कर अभिप्राय बिना जाने प्रश्न उठा दिया। सो अब तेरेको इन तीनों शब्दोंको जुदा २ कहनेका और स्याद्वादसिद्धान्त का रहस्य सुनाते हैं कि- जो शब्दनयवाला कहता है कि मैं अपने स्वभाव में रहता हूं सो उसका अभिप्राय यह है कि बिभाव को छोड़ कर केवल स्वभावको अङ्गीकार किया, तो उस स्वभाव में अनन्त गुण पर्याय आदि हैं सो सबको समुच्चय (शामिल, इकट्ठा) किया। तब समभिरूढनयवाला बोला कि भाई ! तू सबको शामिल लेता है, परन्तु जो बस्तु में अनेक गुण हैं उनके अनेक स्वभाव हैं इस लिये उसने गुणको अंगीकार किया, क्योंकि समभिरूढ़वाला जिस शब्दका अर्थ हो उसको हीमानता है सोही दिखलाते हैं कि जेसे अन्याबाध गुण कहा तो अब्या. बाधगुणका अर्थ होता है कि नहीं है वाधा अर्थात् दुख जिसमें, उसका नाम अव्यायाध है। तैसे ही निरंजनगुण है उसका अर्थ होता है कि नहीं है अंजन अर्थात् मलरूपी मेल जिसमें उसकानाम निरंजन है। ऐसे ही अलख शब्दका अर्थ होता है कि न लखा अर्थात् किसी इन्दिय करके देखनेमें न आवे उसका नाम अलख हैं, इस रीति से अनेक गुण हैं। सो उन अनेक गुणोंके अनेक रीतिकी व्युत्पत्तिसे अर्थ होता है, इस अभिप्राय सेसमभिरूढ़नयवालेने कहा कि मैं गुणमें रहूं हूं। इस अभिप्रायसे स्वभाव स जुदा छांटकर गुणको अङ्गीकार किया। तब एवंभूतनयवाला कहने
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