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[ द्रव्यानुभव-रत्नाकर
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का यथावत बोध ही न होय, इसलिये चारों निक्षपा वस्तुका स्व
धर्म है ।
(प्रश्न) जो तुम निक्षपाको कहते हो सो वस्तुका स्वधर्म बनता नहीं. क्योंकि देखो निक्षेपा शब्द जिस धातुसे बनता है उस शब्दका अर्थ दूसरा होता है, कि 'नि' तो उपसर्ग है और 'क्षिप' धातु क्षेपन अर्थ में है । तो इस शब्दकी व्युत्पत्ति इस रीतिसे होती है कि “निक्षप्ति से
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अनेनस निक्षेपा” इसका अर्थ ऐसा है कि नि के० किया जाय अन्य वस्तुमें, उसका नाम निक्षेपा है। स्वधर्म नहीं बनता ।
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(उत्तर) भो देवानुप्रिय इस श्याद्वाद सिद्धान्तका रहस्य अर्थात् प्रयोजन तेरेको न मालूम होनेसे ऐसा बिकल्प तेरेको उठा, सो तेरा प्रश्न करना निष्प्रयोजन है, क्योंकि देख जो अर्थ तेने निक्षेपाका किया सो धातु प्रत्ययसे तो वही अर्थ है, परन्तु इस क्षेपनके दो भेद हैं- एकतो स्वभाविक है, दूसरा कृत्रिम है । सो कृत्रिम अर्थ में तो जो धातुका अर्थ है सो ही बनेगा, परन्तु स्वभाविक में सांकेतअर्थसे बस्तुका स्वयधर्म ही चारो निक्षेपा है, जो स्वयधर्म वस्तुका न माने तो बस्तुकी ओलखानं अर्थात् पहचान न बने। क्योंकि देखो बिना नामके उन पदार्थों को क्योंकर बुलाया जायगा, इसलिये नाम स्वयधर्म है, जो नाम स्वधर्म न होता तो पदार्थों का जुदा २ कहना ही नहीं बनता, इसलिये नाम बस्तुका स्वयधर्म ठहरा। जब बस्तुका नाम स्वयधर्म ठहरा तो बस्तुका स्थापना भी स्वयधर्म हैं, क्योंकि जिसका नाम है, उसका कुछ आकार भी होगा, जो जिस बस्तुका आकार है वही उस बस्तुको स्थापना है। इसलिये स्थापना भी बस्तुका स्वय धर्म है। जब स्थापना भी बस्तुका स्वयधर्म ठहरा तो द्रव्य भी वस्तुका स्वयधर्म होने में क्या आश्चर्य है, क्योंकि देखो जिस आकारमें उस बस्तुका गुण, पर्याय अवश्यमेव रहेगा जिस अकार में गुण पर्याय रहेगा, उसीका नाम द्रव्य है । इसलिये द्रव्य भी बस्तुका स्वयधर्म है । जब बस्तुका द्रव्य भी स्वयधर्म ठहरा तो, भाव स्वयधर्म क्यों न होगा, किन्तु होगा
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निश्चय करके क्षेपनः इसलिये दस्तुका