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[द्रव्यानुभव-रत्नाकर ।
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इस ऋजुसूत्रनयके दो भेद हैं, एकतो सूक्ष्मऋजुस्त्र, दस स्थलमजुसूत्र। सो सूक्ष्मऋजुसूत्रवाला तो एक समयमें जैसा परिणाम होय तैसा ही माने, वाह्यक्रियाको न देखे, सो ही शान देकर दिखाते हैं कि-जैसे कोई जीव ग्रहस्थ अवस्था में गहना, कपड़ा, शृङ्गार सहित बैठा हुआ है, परन्तु अन्तरंग परिणाम साधूके समान अर्थात इन्द्रियोंके विषयसे अलग होकर आत्मगुणके चिन्तवनमें लग रहा है. उस जीवको सूक्ष्मऋजुसूत्रनयवाला साधू अर्थात् त्यागी कहेगा । तैसेही जो जीव साधूका भेष अर्थात् ओघा, मुंहपत्ती नंगे पग, मंगे सिर, लोचादिकिये हुए हैं, परन्तु उसके अन्तरंग चितमें इन्द्रियोंके विषयभोगनेकी अभिलाषा ( इच्छा) है, उसको सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयवाला अवृत्ती, अपचखानी ग्रहस्थी ही कहेगा, नतु साधूका भेष देखकर साधु कहेगा। इसीरीतिसे इस स्थल ऋजुसत्र नयवाला वाह्यरूपवृत्ती, अथवा कथनीके कथनेवालेको जैसा देखेमा तैसा कहेगा, सो इनदोनों भेदमें केवल वर्तमान कालको ही अपेक्षा है, नतु भूत,. भविष्यतकी। इसरीतिसे ऋजुसूत्रनय कहा।
५ शब्दनय • अब शब्दनय कहते हैं-शब्द अर्थात् बचनसे कहने में आवे उसका नाम शब्दनय है। सो शब्द दो प्रकार का है - एकतो ध्वनिरूप,. दूसरा वर्णात्मक। सो ध्वनिरूप शब्द तो कोई आपस में मिलकर सांकेत करे तो उनके सांकेत मूजिब भावार्थ मालूम पड़े, नहीं तो कुछ नहीं। सो सांकेतका किंचित् वर्णन करते हैं-कि जैसे बर्तमानकाल में अंगरेज़लोगोंने बिजलीके ज़ोरसे तार आदिकका खटका चलाया है
और सब जगह खटके के हिसाबसे हरेक बात मालूम हो जाती है, सा यह रीति इस आर्यक्षेत्र में ध्वनिरुपसे पेश्तर भी लोग आपसम करते थे, सो उसका किंचित् खुलासा करके दिखाते हैं। सो पेश्तर उसके खुलासा होनेको एक छन्द लिखाते हैं।
अहिफन, कमल, चक्र, टंकार, तरु, पलव, यौवन, शृङ्गार। .
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