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[ द्रव्यानुभव- रत्नाकर।
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है । इस लिये इसको व्यतिरेक संग्रह कहा, और रीतिसे भी इसके दो भेद होते हैं - एक तो महासत्तारूप, दूसरा अवान्तरसत्तारूप। इस रीति संग्रह नय कहा । सो इस संग्रह नयमें सब वस्तुका ग्रहण होता हैं, ऐसी जगत्में 'कोई बस्तु नहीं है कि जो संग्रह नयके गृहण में न आवे किन्तु सर्व ही आवें, इस रीतिसे संग्रह नय कहा ।
३ व्यवहार नय ।
अब व्यवहार नय कहते हैं कि - वाह्य स्वरूपको देखकर भेद करे, क्योंकि व्यवहार नय जैसा जिसका व्यवहार देखे तैसाही तिसका स्वरूप कहे, अन्तरंग स्वरूपको न माने, इस लिये इस व्यवहार नयमें आचार क्रियाको देखे, अन्तरङ्गके परिणामको न जाने अर्थात् न देखे, और नयगम, संग्रह नयवाला अन्तरङ्ग परिणामको ग्रहण करता है, क्योंकि यह दोनों नय सत्ताको ग्रहण करते हैं । और व्यवहारनयवाला केवल करनीको देखता है । इस लिये नयगम संग्रह नय वाला तो जीवकी अनेक व्यवस्था है तौ भी सत्ताको ग्रहण करके एक रूप कहता है । और व्यवहारनय वाला जीवका अनेक व्यवस्था मानता है सो ही दिखाते है ।
व्यवहार नयवाला जीवके दो भेद मानता है - १ सिद्ध २ संसारी । उस संसारी जीवके भी दो भेद हैं । एक तो अयोगी १४ वे गुण्ठाने वाला, दूसरा सयोगी । उस सयोगोके भी दो भेद हैं- एक तो केवली १३ में गुण्ठाने वाला, २ छन्नस्थ । उस छद्मस्थके भी दो भेद हैं, एक क्षीणमोही १२ वे गुण्ठाने वाला, २ उपसान्त मोह वाला । उस उपसान्त मोह वालेके भी दो भेद हैं- एक तो अकषाई अर्थात् क्रोध, मान, माया करके रहित १९ वे गुण्ठानेवाला जीव, २ सकषाई अर्थात् सूक्ष्म लोभ । उस सकषाई के भी दो भेद है - एक तो श्र ेणी अर्थात् ऊपर चढ़नेवाला, २ श्र ेणीकरके रहित अर्थात् न चढ़नेवाला । उस श्रेणी रहितके भी दो भेद हैं—१ अप्रमादि, २ प्रमादी । उस प्रमादोके भी है। भेद हैं-१ सर्व वृत्तिवाला साधू, २ देश वृत्तिवाला श्रावक ।
उस देश
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