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द्रव्यानुभव-रत्नाकर । देते हो ; तैसे हम भी द्रव्यार्थिक, पर्यार्थिकको जुदा करके उपदेश देते हैं ? तो हम तुम्हारेको कहते हैं कि हे भोले भाई विवेकसुन्य बुद्धि 'विचक्षण होकर हठबाद करते हो, और कुछ आत्माके कल्याण अर्थ किंचित् भी नहीं विचारते हो, सो हम तुम्हारेको कहते हैं, सो नेत्र 'मींचकर हृदयकमल पर बुद्धिसे बिचार करो कि शब्दनय, संभिरूढ नय और एवंभूतनय इन तीनोंमें जैसा विषय भेद है तैसा द्रव्यार्थिक और पर्यार्थिक नयमें भिन्न (जुदा ) विषय दीखे है नहीं। क्यों कि देखो जिस मतान्तर वालेने तीन नय एक संज्ञामें ग्रहण करके ५ नय कहा, परन्तु इनका विषय भिन्न (जुदा) है, और ऐसा विषय भिन्न उस द्रव्यार्थिकमें नहीं, क्योंकि देखो जो द्रव्यार्थि कके १० भेद कहे हैं सो सर्व शुद्धाशुद्ध संग्रह आदिक नयमें मिल जाते हैं, और जो पर्या'र्थिकके ६ भेद कहे हैं सो सर्व उपचरित, अनूपचरित ब्यबहार शुद्धा
द्ध ऋजुसत्र आदिक नयमें मिले है, जो गौवली बर्ध न्याय करके विषय भेद कहकर जुदा भेद मानोगे तो स्याद्स्त्येव, स्यानास्त्येव, इत्यादिक सप्तभंगीमें क्रोड़ों रीति अर्पित अनार्पितमें, सत्यासत्यग्राहक नय भिन्न २ नाम जुदा २ करोगे तो सप्त मूल नय प्रक्रिया भंग होकर अनेक नय बन जायगी। इस लिये इस सूक्ष्म बिचारको कोई अध्यात्म शैलीसे आत्म अनुभव वाले ही बिचार सक्त हैं नतु जैनी नाम धरानेसे । कदाचित् जो तुम नव नय ही कहोगे तो विभक्तका विभाग अर्थात् पीसेका पीसना हो जायगा, इसलिये जो तुम्हारेको यथावत विवेचन करना होय तो जैसे “जीवा द्विधाः संसारिन् सिद्धाश्च संसारिन् प्रथब्यादि षट भेदाः सिद्धा पंच दस भेदा” तैसे ही “नया द्विधा द्रव्यार्थिक पर्यार्थिक भेदात् द्रव्यार्थिका स्त्रिधा नयगम आदि भेदात् पार्थिकः ऋजुसूत्र आदि भेदा चतुर्धा" इसरीतिसे विवेचन होता है परन्तु नव नया एक वाक्यका विभाग करना सो सर्वथा मिथ्यावाक्य है। ___ कदाचित् वो दिगम्बर ऐसा कहे कि जैसे जीव, अजीव दो तत्व हैं और उन दोनों तत्वोंके अन्तर्गत सब तत्व मिल जाते हैं, तो फिर सात अथवा नवतत्व क्यों जुदे २ कहते हो, जैसे सात अथवा नवतत्व जुदे २
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