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द्रव्यानुभव - रत्नाकर । ]
-द्रष्यनिक्षपा कहते हैं और एक प्रणती धर्मको ही भावनिक्षेपा कहते हैं । और सिद्धसेन दिवाकर विकल्पको चेतना होनेसे भावनय कहते हैं, और प्रवृत्तीकी सीमा (हद्द) व्यवहार नय तक है, और संकल्प है सो ऋजुसूत्र नय है, एकवचन पर्यायरूप परिणतीधर्म सो शब्द नय है, और सकल बचन पर्याय रूप परिणिति धर्म सो संभिरूढ़ नय है, अथवा बचन पर्याय अर्थ पर्यायरूप सम्पूर्ण धर्म है सो एवंभूत नय है, इसलिये यह शब्दादिक तीन (३) नय सो विशुद्ध नय है, सो यह भाव धर्म नय - मुख्यता अर्थात् उत्तर २ सूक्ष्मताका ग्राहक है । इस रीतिसे दोनों आचार्योंका - आशय कहा ।
इसका मुख्य तात्पर्य यही हैं कि श्रीजिनभद्र गणोक्षमाश्रमण संकल्पधर्मको उदयीकमिश्रपनेसे पुद्गलीक होनेसे द्रव्यनिक्ष पामें गिना, सो कोई अपेक्षा सूक्ष्म बुद्धिविचारसे और सिद्धान्तके बिरोध न होनेके वास्ते द्रव्य निक्षेपा बनता है, और सिद्धसेन दिबाकर प्रमुख आचार्योंके "आशयसे तो चेतनाका अशुद्ध भाव होनेसे बिकल्प रूप है सो चेतनामें सूक्ष्म बुद्धि बिचार रूपसे पुद्गलीक लेश है नहीं, इसलिये कोई अपेक्षासे पर्यार्थिक भी बनता है ।
दूसरा और भी एक आशय कहते हैं कि- जब नयके सात सौ ( ७००) भेद किये जाते हैं उन भेदोंमें ऋजुसूत्रनय को पर्यार्थिक : माननेसे ही एक २ नयके सौ २ (१००, २) भेद पूरे होंगे, क्योंकि देखो नयगमनयके तीन भेद हैं, उनको दस द्रव्यार्थिकसे गुणनेसे तीस · (३०) होते हैं । और संग्रह नयके दो भेद हैं उसको दस (१०) द्रव्यार्थिक से गुणा करें तो बीस (२०) भेद होते हैं। और व्यबहार नयके भी दो -भेद हैं इसको दस (१०) द्रव्यार्थिकसे गुणा करें तो २० भेद होते हैं । इसरीतिसे इन तीनों नयको भेद समेत द्रव्यार्थिकसे गुणा किया तो -७० भेद हुए ॥
अब पर्यार्थिक के तीस (३०) भेद कहते हैं कि ऋजुसूत्रनयके दो -मेद हैं सो छः (६) पर्यार्थिकसे गुणा करनेसे बारह (१२) भेद होते हैं । और शब्द, संभिरूड, एवंभूत नय इनके भेद नहीं है इसलिये इन तीनोंसे
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