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[ द्रव्यानुभव-रत्नाकर।
इसका नय
१०४] सिद्धान्तका रहस्य क्योंकर जान सक्त हैं, इस रीतिसे उस उपनयका कथन करना जैनमतसे मिथ्या है।
ऐसे ही जो उसने निश्चय, व्यवहारके भो भेद कल्पना किये हैं. मी भी ठीक नहीं है। क्योंकि देखो ब्यवहार नयके विषय तो उपचार और निश्चय नयके विषय उपचार नहीं, इसमें क्या विशेष है, क्योंकि देखो जब एक नयकी मुख्य वृत्तीको अंगीकार करे तब दूसरी नयी उपचार वृत्ती अवश्यमेव आवे, यदिउक्त “स्यादस्त्येव" ये नय वाम अस्तित्व ग्राहक निश्चय नय अस्तित्व धर्म मुख्य बृत्ती कालादिक आठ अभेद वृत्ती उपचारे अस्तित्व सम्बन्ध सकल धर्म मिला हुआ सकला देश रूप नय वाक्य होय, स्वस्वार्थसत्यपनेका अभिमान तो सर्व नयके माहों माही है, और फलसे भी सत्यपना है, सो सम्यक दर्शन योग है, इसलिये निश्चय और व्यवहारका जो लक्षण सो विशेषावश्यकमें कहा है सो उस शास्त्रके अनुसार अंगीकार करो। उक्तच “तत्वार्थग्राही नयो निश्चयलोकभिमतार्थग्राही व्यवहारः" जो तत्वार्थ है सो ही निसन्देह युक्ति सिद्ध अर्थ जानना। और जो लोक अभिमत है सो व्यवहार प्रसिद्ध हैं। यद्यपि प्रमाणतत्यार्थ ग्राही है, तथापि प्रमाणस्य सकल तत्वार्थ ग्राही निश्चयनय अर्थात् निसन्देह है। और एक देश तत्वार्थ ग्राही व्यवहार यह भेद निश्चय और व्यवहारमें जानना। और निश्चय नयकी विषयता अथवा व्यवहार नयकी विषयता है सो अनुभव सिद्ध जुदी है, इस बातको नेत्र मींचकर हृदय कमलके ऊपर विचारी जिससे तुम्हारा अज्ञान जाय। क्योंकि देखो जो वाह्य अर्थ का उपचारसे अभ्यन्तर पना करे, उसको निश्चयनयका अर्थ जानना। यदि उक्त "समाधिनन्दनं धैर्ये दंभोलि: समता शची॥ ज्ञाना महा विमानंच वासव श्रीरियं पुनः" ॥१॥ इत्यादि ऐसा ही पुंडरीक अध्ययनमें भी कह्या हैं, जो घनी विक्तिका अभेद दिखा वे सो भी निश नयार्थ जानना, क्योंकि देखो जैसे “एगेआया" इत्यादि सूत्र। . वेदान्त दर्शन भी शुद्धसंग्रह नयादेश रूप शुद्ध निश्चय नयाथ है सम्मति ग्रन्थमें कहा है, और यकी जो निर्मल परिणिति वाह्य ।
श्चय
और
रिणिति वाह्य निर्पक्ष
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