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द्रव्यानुभव-रत्नाकर।]
अब दूसरे लक्षणका स्वरूप कहते हैं।
प्रथम लक्षणमें ऐसा कहा था कि “गुण पर्याय वत्व द्रव्यत्वं" सो इस लक्षणमें हमने छओं द्रव्योंको सिद्ध किया है। तथा गुण पर्याय कहे और इन गुण पर्यायका जो समुदाय उसीका नाम दृव्य है, जब उसका नाम दूब्य हुआ तो लक्षण यथावत स्वरूपसे मिल गया, और अति व्याप्ति, अब्याप्ती, असम्भवादि दूषण सब मिट गया, इसलिये दूसरा लक्ष्य कहनेका भी हमारा चित्त चल गया, “क्रिया कारित्वं दव्यत्व" ये भी लक्षण बन गया। अब इसका अर्थ ऐसा है कि जो क्रिया करे सो ही दून्य है, इसलिये क्रिया करनेके वास्ते पेश्तर द्रव्योंके गुण और पर्यायमें साधर्मपना और वैधर्मपना कहकर पीछेसे दूव्योंमें क्रियाका करना वतलावेंगे क्योंकि साधर्म, वैधर्म कहेके बिना क्रियाका यथावत करना दब्योंमें जिज्ञासुको समझना कठिन होजायगा, इस लिये पेश्तर छओं दब्योंमें गुण पर्यायका साधर्म और वैधर्मपना कहते हैं। साधर्म तो उसको कहते हैं कि सरीसी क्रिया अर्थात् काम करे और बैधर्म उसको कहते हैं-कि जो दूसरेसे भिन्न क्रिया अर्थात् काम करे, उसका नाम वैधर्मपना है सो ही दिखाते हैं। कि छओं व्योंमें अगुरु लघु पर्याय सो सबमें समान (सरीखा) है, क्योंकि षट् - गुण हानि वृद्धि छओं द्वयों में होती है, इसलिये इस अगुरु लघु पर्यायको सब द्रव्योंमें सरीखा कहा। आकाश, धर्म, अधर्म, इन तीनों द्रव्योंके तीन गुण, चार पर्याय, समान अर्थात् सरीखे है। और काल दुव्यके भी तीन गुण समान हैं अर्थात् सरीखा है। और अचेतन पनेमें ५ दूव्य समान अर्थात् सरीखा है, एक जीव दूव्य नहीं है। और अरूपीपनेमें ५ दूव्य समान, एक पुद्गल रूपी है। इसरीतिसे इनका साधर्मपना कहा। अब जो गुण एक द्रव्यमें है, दूसरेमें नहीं उसको दिखाते हैं और उसीको वैधर्मपना भी कहते हैं, कि चेतनपना जीव द्रव्यमें है, ५ दूव्य अचेतन (अडीव) हैं। एक आकाश दूव्य अवगाहना दान अर्थात् जगह देनेवाला है। एक धर्मस्तिकाय गति सहाय अर्थात् जोव पुद्गलको चलने में सहाय देती है, ५ व्योंमें सहाय देनेवाला
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