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[ द्रव्यानुभव-रत्नाकर ।
दिगम्बर प्रक्रियासे नय स्वरूप ।
दिगम्बरी लोक नव ( ६ ) नय, और तीन (३) उपनय मानते हैं, और अध्यात्म शैलीमें एक निश्चय नय, दूसरा ब्यवहार नय, इन दो नयको ही मानते है । सो पेश्तरतो नव ( ६ ) नय और तीन (३) उप
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नय इनकी जुदी २ जो प्रक्रिया इनके शास्त्र में लिखी है, उसी रीतिसे प्रतिपादन करते हैं । कि १ द्रव्यार्थिक नय, २ पर्यार्थिक नय, ३ नयमम नय, ४ संग्रह नय, ५ ब्यवहार नय, ६ ऋजुसूत्र नय, ७ शब्द नय, ८ संभिरूढ नय, ६ एवंभूत नय, इसरीतिसे नव नय, हुआ ।
१ - तिसमें पहला ( १ ) जो द्रव्यार्थिक नय है उसके दस (१०.) भेद हैं सो दिखाते हैं । कि प्रथम शुद्ध द्रव्यार्थिक है, क्योंकि सर्व संसारी प्रानी मात्रको सिद्ध समान मानिये, क्योंकि सहज भाव जो शुद्ध आत्म स्वरूपको आगे करे और भवपर्याय जो संसार अर्थात् जन्म, मरण उसकी गिनती अर्थात् विवक्षा न करे, उसका नाम शुद्ध द्रव्यार्थिक है, बल्कि उनके यहां दृव्य संग्रहमें कहा भी है "यतः मगाणा गुण ठाणेहि चउदसहि हवंतितहे अशुद्ध णया विणेया संसारी सव्वे सुाहसुद्ध गया ।”
अब दूसरा भेद कहते हैं कि उत्पाद वयकी गौणता और सत्ता की मुख्यता करके शुद्ध दुब्यार्थिक जानना । यदिउक्त "उत्पाद वय गौणत्वे न सत्ता ग्राहकं सुद्ध दुव्यार्थिक" दृव्य है सो नित्य हैं और त्रिकाल अविचलित रूप सत्ताकी मुख्यता लेनेसे यह भाव संभवे है क्योंकि जो पर्याय प्रतक्ष परिणामी है तौ भी जीव पुद्गलादिक द्रव्य सत्तासे कदापि चले नहीं, यह दूसरा भेद हुआ ।
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अब तीसरा भेद कहते हैं कि भेद कल्पना करके हीन शुद्ध व्यर्थ है, क्योंकि जीव अथवा पुगल आदि दुव्य अपना २ गुण पर्यायसे अभिन्न कहते हैं, क्योंकि कदाचित् भेद पना है। तौ भी उस भेदको अर्पन नहीं करते और अभेदको अर्पन करते हैं, इस
लिये अभिन्न है, यह तीसरा भेद हुआ ।