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नभव-रक्षाकर
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इस रीतिसे उपचारसे असद्भूत व्यवहार नव प्रकारका हुआ।
अब इनके तीन भेद हैं सो भी कहते हैं-१ स्वय जाति असा व्यवहार, जैसे परमाणुमें बहु प्रदेशी होनेकी जाति है, इस लिए प्रदेशी कहें, इस रीतिसे स्वय जाति असद्भूत व्यवहार हुआ, यह प्रथम भेद हुआ।
दूसरा बिजाती असद्भूत व्यवहार कहते हैं कि जैसे ‘मतिक्षानको मूर्तिवन्त कहे, मूर्ति जो विषय लोग नमस्कारादिक सं उत्पन्न होय, इस लिये मूर्तिवन्त कहा। इस जगह मतिमान सो आत्म गुण तिसके विषय मूर्तत्व जो पुद्गल गुण तिसका उपचार किया, इस लिए विजाती असदुद्भूत ब्यवहार हुभा, यह "दूसरा-भेद हुमा। . ...तीसरा मेद कहते हैं कि स्वय जाति और बिजाति उभय असदभूत व्यवहार-जैसे जीव अजीव विषय ज्ञान कहे, इस जगह -जीव सो ज्ञानकी स्वय जाति है, और अजीव सो ज्ञानकी विजाति है, इन दोनोंका विषयी भाव उपचरित सम्बन्ध है, इस लिए स्वय जाति विजाति भसद्भूत व्यवहार है, यह तीसरा भेद हुआ। __ भब जो एक उपचार से दूसरा उपचार करे सो भी भसद्भुत • व्यवहार है सो उसके भी तीन भेद हैं।
एक तो स्वजाति, दूसरा विजाति, तीसरा दो को मिलाय कर अर्थात् उभय सम्बन्धसे तीसरा भेद होता है, सो ही दिखाते हैंस्वजाति उपचरित असदभूत व्यवहार सम्बन्ध कल्पना से जानो कि जैसे मेरा पुत्रादिक हैं, इस जगह पुत्रादिक को अपना कहना स पुत्रादिकके विषय उपचार है क्योंकि आत्माका भेद, भभेद सम्बन्ध उपचार करते हैं, क्योंकि पुत्रादिक है सो शरीर आत्म पर्याय रूप स्वजाति है, परन्तु कल्पित है।
अब दूसरा भेद कहते हैं कि यह वल मेरा है, इस जगह बलादिक पुद्गल पर्याय नामादि भेद कल्पित है सो विजाति स्वय सम्बन उपचार असद्भूत व्यवहार है।
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