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[ द्रच्यानुभव- रत्नाष!
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प्रदेश, और जीव द्रव्यका स्त्रयकाल षट्गुण हानि, वृद्धि, अगुरु लघु पर्याय का जो फिरना वो काल है, जीवका स्वयभाव ज्ञानादि चेतना "लक्षण मुख्य गुण है सो ही स्वभाव है। ऐसेही आकाश द्रव्यमें स्वय द्रव्य जो गुणपर्यायका भाजन सो ही स्वय द्रव्य है, और स्वय क्षेत्र जो लोक, अलोकके अनन्त प्रेदेश, और स्वयकाल सो अगुरु लघुका फिरना, और स्वय भाव जो अव गाहना दान गुण । इसी रीतिले 'धर्मस्ति कायका स्वय द्रव्य जो गुण पर्यायका समूह, स्वय क्षेत्र असंख्यात प्रदेश, स्वयकाल अगुरु लघु, स्वयभाव चलन सहाय मुख्य गुणवोही स्वभाव है । ऐसे ही अधर्मस्ति कायका जानलेना । काल द्रव्यका स्वय द्रव्य गुणपर्यायका समूह, स्वय क्षेत्र एक समय - मात्र, स्वयंकाल अगुरू लघुका फिरना है, स्वयभाव जो मुख्य गुणबर्त्तना लक्षण । ऐसे ही पुद्गल द्रव्यका स्वय द्रव्य गुणपर्यायका समूह, स्वय क्षेत्र परमाणु, स्वयकाल अगुरु लघुका फिरना है, · स्वय स्वभाव जो मुख्य गुण मिलन विखरन। इस रीतिसे छभों द्रव्यमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कहा । सो स्वय द्रव्य, स्वयक्षेत्र, स्वयकाल, स्वयभाव करके तो सत्य हैं । और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, "परभाव करके असत्य हैं। जो स्वय करके सत्य और पर करके असत्य न होय तो दूसरा द्रव्य न ठहरे, और कोई कार्य भी न होय, इसलिये स्वय करके सत्य और पर करके असत्यता अवश्यमेव 'पदार्थोंमें है। और इस सत्य असत्यके होने ही से जुदा पदार्थ ठहरता है, इसीलिये वेदान्तीका भद्वैत नहीं ठहरता है। इस रीतिसे सत्य असत्य पक्ष कही ।
वक्तव्य - अवक्तव्य ।
अब वक्तव्य, अबक्तव्य पक्ष कहते है कि जो वचनसे कहने में -आवे सो तो वक्तव्य है, और जानेतो सही परन्तु बचनसे नहीं कह सके सो अबक्तब्य है। सो इसका वर्णन तो हमने स्याद्वाद अनुभव आदि -कई ग्रंथोंमें किया है, परन्तु युक्ति यहां भी दिखाते हैं।
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जैसे
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