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द्रव्यानुभव-रत्नाकर।]
[४७ नहीं करता और जो उन जल जन्तु मच्छादिकी चलनेकी इच्छा होय और जल न होय तो वो कदापि थलमें नहीं चल सक्त, तैसे ही जीव पुद्गल भी चलनेकी बांछा करे तब धर्मस्तिकाय चलनेमें सहाय देती है जिस जगह धर्मस्तिकाय नहीं है, उस जगह जीव पुदगल इच्छा भी करे तो नहीं चल सके। और जैसे छायाकी प्रेरना बिदून वो रस्ताका चलहवाला पुरुष अपनी इच्छासे छायामें ठहरता है, जो छाया न होय तो वह पुरुष चलनेसे नहीं ठहर सक्ता, तैसे ही अधर्म स्तिकायकी प्रेरना बिना जीव पुद्गल अपनी इच्छासे ठहरते है, जो अधर्मस्तिकाय न होय तो जीव पुद्गलका ठहरना न बने, इसलिये जैसा सर्वज्ञ वीतरागने अपने ज्ञानमें देखा, तैसा ही द्रव्योंका प्रतिपादन किया इसलिये धर्म, अधर्म द्रव्य अवश्यमेव मानने चाहिये।
(प्रश्न ) अजी धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यका मानना ठीक नहीं, क्योंकि धर्म, अधर्म कुछ द्रव्य नहीं ; किन्तु धर्म, अधर्म तो जीवका कर्तव्य है कि धर्म अर्थात् जिसको लौकिकमें पुण्य कर्म कहते हैं वो जोव पुद्गलको चलाता है, और अधर्म अर्थात् जिसको लौकिकमें पाप कहते हैं वो स्थिर करता है इसलिये धर्म, अधर्म जीवका कर्तव्य है कुछ धर्म, अधर्म द्रव्य जुदा पदार्थ नहीं है।
(उत्तर) भो देवानुप्रिय यह तेरा कहना पदार्थका यथावत् ज्ञान न होनेसे और श्री वीतरोग सर्वज्ञदेवका जो श्याद्वाद सिद्धान्त उस स्याद्वाद सिद्धान्तके कहने वाले गुरुओंका उपदेश तेरेको न मिला इसलिये तेरको ऐसा भ्रम पड़ा कि धर्म, अधर्म कुछ पदार्थ नहीं है किन्तु धर्म, अधर्म जीवका कर्तव्य है। इस तेरे सन्देह दूर करनेके वास्ते और त्रिकालदर्शी परमात्माके कथन किये हुए पदार्थको प्रति पादन करनेके वास्ते, तेरेको समझाते हैं कि। जो धर्म, अधर्म अर्थात् जिसको लौकिकमें पुण्य कर्म और पाप कर्म कहते हैं वो धर्म, अधर्मतो ऊंच गति और नीच गतिको प्राप्त करते हैं और कुछ चलने और स्थिर होने में सहाय नहीं देते, किन्तु यह तो फलके दाता हैं, सहायके नहीं, क्योंकि देखो जो धर्मके करने वाले पुरुष हैं, उनको वह धर्म ऊच गति
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