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[ द्रव्यानुभव रत्नाकर। देखकर अलोकके विषय भी जीव पुद्गलका निषेध किया कि अलोक आकाशमें जीव पुद्गलादि कोई व्य नहीं।
(प्रश्न ) जीव पुद्गलको अधर्मस्तिकाय स्थिर होनेमें क्योंकर सहाय देती है।
( उत्तर ) भो देवानुप्रिय अधर्म द्रव्य जो जीव पुद्गलको स्थिर करनेमें सहाय देती है, उस सहायके दृढ़ करानेके वास्ते तुम्हारेको दष्टान्त देकर समझाते हैं कि, जैसे कोई पुरुष मार्गमें चलता हुआ धूप की तेजी और गर्मीसे व्याकुल था उस वक्त एक दरख्त ऐसा नज़र आया कि जिसकी शोतलता घनघोर छाया हो रही थी, उसको देखते ही उस छायामें जाय बैठा, जो वह छाया उसको उस जगह न मिलती तो वह कदापि नहीं ठहरता। तैसे ही अधर्म दूव्य होनेसे जीव पुद्गलका ठहरना वनता है, जो अधर्म दूव्य न होय तो जीव पुद्गलका ठहरना न बने। इसीलिये श्री वीतराग सर्वशदेवने अपने केवल ज्ञानमें इस लोक अर्थात् १४ राजमें ही अधर्म द्रव्य देखा और अलोक आकाशमें न देखा, इसलिये अलोक आकाशमें और दूव्योंका निषेध अर्थात् कोई द्रव्य न कहा। सो इस अधर्मस्तिकायके भी नय करके कई भेद हैं सो हम नयके विचारमें कहेंगे, इस रीतिसे धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य कहा।
(प्रश्न ) आपने जो धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य कहा सो क्या जीव पुद्गलको प्रेरना करके गति अर्थात् चलना धर्मस्तिकाय कराती है
और अधर्मस्तिकाय भी प्रेरनाके साथ ही जीव पुद्गलको स्थिर अर्थात ठहराती है, अथवा जीव पुद्गल इनकी प्रेरनाके बिना स्वतह ही गति वा स्थिर भावको प्राप्ति होते हैं, इसलिये इन दो द्रव्योंको मानते हो।
( उत्तर ) भो देवानुप्रिय इन दोनों द्रव्योंकी प्रेरनाके विना जीव और पुद्गल गमन और स्थिर भावको अपनी इच्छासे होते हैं, क्योंकि देखो जैसे जल जन्तु जीव मच्छादि चलनेकी इच्छा करें तब उनके चलनेमें जल सहाय देता है कुछ जल उनको चलानेकी प्रेरेना
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