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द्रव्यानुभव-रत्नाकर।
[ ४५ इसी कारणसे अलोकके विषय जीव पुद्गलका होना निषेध किया कि उस जगह धर्मास्तिकाय नहीं है, इसलिये जीव पुद्गल भी नहीं है, क्योंकि धर्मास्तिकायके बिदून जीव पुद्गलको चलने हलनेमें सहाय (सहारा ) कौन करे।
__ (प्रश्न ) जीव पुद्गलको धर्मास्तिकाय चलनेमें क्योंकर सहाय देती है।
(उत्तर) भी देवानुप्रिय यह धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलको चलने हलने में सहारा (सहाय ) देती है, उस सहायके गुढ़ करानेके वास्ते तुम्हारेको दृष्टान्त देकर समझाते हैं कि, जैसे मच्छ आदि जल जन्तु गति अर्थात् चलनेकी, इच्छा करें उसवक्त चलनेके समय जल सहायकारी होता है, जहां २ जल होय तहाँ २ मच्छादि जलजन्तु चल सकता है और जिस जगह जल नहोय उस जगह मच्छादि जलजन्तु कदापि न चलसके, क्योंकि थलमें मच्छादि जलजन्तु कदापि नहीं चल सक्त, यह बात वाल गोपाल आदि सर्बके अनुभव प्रसिद्ध है। तैसेही जीव और पुद्गल भी जहां २ धर्मस्तिकाय है, तहां २ ही चलना फिरना कर सक्त हैं, इस धर्मस्तिकायके सहारे बिना चलना फिरना नहीं कर सके, इसलिये श्री सर्वज्ञ देव बीतरागने धर्मस्तिकाय द्वन्यको देखकर वर्णन किया। सो यह धर्म दूव्य यद्यपि एक है तथापि नयका भेद करनेसे अनेक भेद होजाते हैं सो अन्य शास्त्रसे जानना अथवा आगे हम नयका वर्णन करेंगे उस जगह किञ्चित् भेद दिखावेंगे, इसरीतिसे धर्मव्य कहा।
अधर्मास्तिकाय। अब अधर्म दूव्य अर्थात् अधर्मस्तिकायका वर्णन करते हैं, कि अधर्मस्ति काय भी स्थिर (थिर) करनेमें जीव और पुद्गलको सहाय देती है जहां२ अधर्मस्ति काय है, तहां २ ही जीव और पुद्गलकी स्थिति होती है और जिस जगह अधर्मस्तिकाय नहीं है, उन जगह जीव और पुद्गलकी स्थिति भी नहीं है। ऐसा श्री सर्वज्ञ बीतरागने अपने ज्ञानमें
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