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द्रव्यानुभव - रत्नाकर । ]
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मण्डन न लिखा, जिज्ञासुके सन्देह दूर करनेके वास्ते और नास्तिक मतको हटानेके वास्ते किञ्चित् युक्ति दिखाते हैं कि, जो नास्तिक मतवाला कहता है कि जीव नहीं हैं, उससे पूछना चाहिये कि हे बिवेक सुन्य बुद्धि बिचक्षण जोतू जीवको निषेध करता है
तू जीव देखा है तब निषेध करता है, अथवा तूने उसको नहीं देखा है तौभी निषेध करता है। जो वह कहे कि नहीं देखा ओर मैं निषेध करता हूं, तब उससे कहना चाहिये कि हे मूर्खोंमें शिरोमणि मूर्ख जब तूने देखाही नहीं है तो निषेध किसका करता है, क्योंकि बिना देखी हुई बस्तुका निषेध नहीं बनता, इसलिये तेरे कहनेसे ही तेरा निषेध करना मिथ्या होगया । कदाचित् दूसरे पक्षको कहे कि मैंने जीवको देखा है इसलिये मैं निषेध करता हूँ। तब उससे कहना चाहिये कि हे भोले भाई तेरे मुखसे ही जीवसिद्ध होगया, क्योंकि देख जबतूने उसको देखलिया तो फिर तूं उसका निषेध क्योंकर करसक्ता है। इसलिये इस हठको छोड़कर सत्गुरूके बचनको मान, छोड़दे मिथ्या अभिमान, बिबेक सहित बुद्धिमें करो कुछ छान, इसीलिये जीवोंको दीजिये अभयदान, जिससे उगे तुम्हारे हृदय कमलमें भान, होवे जल्दी तेरा कल्याण । इस रीति से किञ्चित् जीवका स्वरूप कहा ।
अब अजीबका स्वरूप वर्णन करते हैं, जिसमें अव्वल आकाशका स्वरूप कहते हैं।
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आकाशास्तिकाय |
आकाश नाम अवकाश अर्थात् पोला जो सबको जगह दे, उसका नाम आकाश है, सो उस आकाशके दो भेद हैं, एक तो लोक आकाश, दूसरा अलोक आकाश । लोक आकाश तो उसको कहते हैं, कि जिसमें और द्रव्य है, परन्तु अलोकमें और द्रव्य नहीं, इसलिये उसको अलोक कहा ।
(प्रश्न ) आपने जो आकाशका वर्णन किया सो आकाश अर्थात्
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