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द्रव्यानुभव-रत्नाकर।]
[५१ देखो। प्रथम नयके दो भेद हैं, एकतो निश्चय अर्थात् निसन्देह शुद्ध व्यवहार हैं, दूसरा व्यवहार अर्थात् अशुद्ध व्यवहार है, सो निसन्देह शुद्ध व्यवहार तो परमार्थके साथ मिलता हैं, अशुद्ध व्यवहार लौकिकके साथ मिलता है, तिसमें निश्चय नय अर्थात् शुद्ध व्यवहार करके तो एक समय लक्षण रूप काल है, उससे अतिरिक्त कुछ नहीं। और अशुद्ध व्यवहार नय करके आवलिका आदिक की कल्पना है, सो असद्भूत कल्पना करके लौकिक व्यवहारसे कहते हैं कि, असंख्यात समय मिले तब एक अवलिका होती है और एक करोड़ सढ़सठलाख सत्ततर हजार दो सै सोलह आवलिका (१६७७७२१६) होय तव एक मुहूर्त होता है, यदि उक्त “यथा समय आवली" यह सर्व लौकिक व्यवहार करके कहनेमें आता है, परन्तु परमार्थ देखेंतो सर्व कल्पना है, सो यह समय लक्षण रूप काल पैंतालिस लाख योजन प्रमाण क्षेत्रके विषय हैं, और बाहरके जो क्षेत्र हैं उनमें नहीं क्योंकि जहां सर्यकी गति हैं तिस जगह ही काल व्यवहार है, यह अधिकार (बिवाह प्रज्ञप्ति) सूत्र की बृत्तिमें श्री अभय देव सरी जी महाराजने कहा हैं कि “अदित्य गतेस्त द्वयेज कत्वात्" कालका व्यंजक आदित्य गमन सो ज्ञापक हैं और बाहरके द्वीपोंके विषय आदित्य अर्थात् सूर्यका गमन नहीं हैं उन द्वीपोंमें सूर्य स्थिर है।
(प्रश्न ) कालतो मनुष्य क्षेत्र मात्रमें ही है और बाहिरके द्वीपोंमें है नहीं ऐसा तुम्हारा कहना ऊपर हुआ तो वाहिरके द्वीप और स्वर्ग नकके विषय कालकी क्योकर खबर पड़ेगी।
(उत्तर) भो देवानुप्रिय मनुष्य क्षेत्रकी अपेक्षा करके ही नक, स्वर्ग आदि सब जगह कालका व्यवहार होता हैं सो समयतो दृव्य हं और द्रव्यका परावर्त गुण हे ओर अगुरु लघु पर्याय हैं, इस रीतिसे द्रव्य, गुण, पर्याय, लौकिक ब्यवहारसे कालको जानना।
परन्तु दिगम्बर आमनावाला ऐसा कहता है कि लोक आकाशके विषय जितना। आकाश प्रदेश है उतनाही एक समय रूपकालका आकाश प्रदेश जितने ही कालके अणु हैं, इसलिये असंख्यात कालका
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