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[ द्रव्यानुभव - रत्नाकर।
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पूंछ होय उसका नाम गऊ है। इस लक्षणसे गायका लक्षण यथावत हो गया, क्योंकि देखो गायके गलेमें ही चमड़ा लटकता है और किसी बकरी, भैंस, हिरन आदि पशुके गलेमें चमड़ा नहीं लटकता, इसरीतिसे जो विद्वान पुरुष हैं वे लक्षणको कहकर जिज्ञासुके वास्ते लक्षको यथावत बता देते हैं। इसलिये लक्षणका कहना अवश्यमेव सिद्ध हो गया, बिना लक्षणके लक्षकी प्रतीत कदापि न होगी । इस रीति से आचार्य प्रथम लक्षणका स्वरूप कहते हैं । इसलिये तुमने जो अन अवस्था आदि दूषण लक्षणमें दिया सो न बना और हमारा लक्षणका कहना सिद्ध होगया सो अब लक्षण कहते हैं ।
(द्रवती द्रव्यं) अर्थात् जो द्रावण चीज होय उसका नाम द्रव्य है । ऐसा लक्षणतो नैयायिक वैशेषिक आदि ग्रन्थोंमें कहा हैं सो वहाँसे देखो। अब जैन मतको रीतिले द्रव्यका लक्षण कहते हैं ( गुण परियाय वत्वं इति द्रव्यत्वं ) अथवा ( क्रिया कार्यत्वं इति द्रव्यत्वं ) अथवा ( उत्पादवय किंचित् ध्रुवत्वं इति द्रव्यत्वं ) शास्त्रोंमें तो और भी लक्षण कहे हैं, परन्तु जिज्ञासुको इतनेसे ही बोध हो जायगा, और ज्यादा लक्षण कहनेसे ग्रन्थ भी बहुत बढ़ जायगा, इसलिए इन तीन लक्षणोंका अर्थ दिखाते हैं । प्रथम लक्षणका अर्थतो यह है, कि गुण पर्यायका भाजन अर्थात् जिसमें गुण पर्याय रहे उसका नाम द्रव्य है, क्योंकि गुणीको गुण छोड़कर कदापि अलग नही रहता और गुणके बिना गुणी भी नहीं कहा जाता, इसलिये गुणका जो समूह सो ही द्रव्य हुआ, इसका विशेष अर्थ आगे कहेंगे । अथवा क्रिया करेसो द्रव्य, इसलिये क्रियाकारित्व द्रव्यका लक्षण कहा । अथवा 'उत्पादबय ध्रुव' इसका अर्थ ऐसा है कि उपजना और बिनसना और किंचित ध्रुव रहना सो सदा द्रव्यमें होरहा है। जिसमें उत्पादवय न होय वो गव्य नहीं; इस उत्पादव्यय लक्षणका विशेष कथन आगे कहेंगे ।
अब इस जगह श्री बोतराग सर्वश देवने मुख्य करके दो राशि अर्थात् दो पदार्थ कहे हैं, अथवा इन्हींको दो द्रव्य कहते हैं, फिर जिज्ञासु के समझानेके वास्ते इन दोनों पदार्थोंके और भी भेद किये हैं सो प्रथम
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