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द्रव्यानुभव - रत्नाकर । ]
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भाइ ! श्री मरुदेवी माताने भी लिङ्गादि रहित शुद्ध व्यवहार चारित्र अङ्गीकार किया । जबतक वे शुद्ध व्यवहार न करती तब तक कदापि मोक्ष न होता। इसलिये अभी तेरेको जिन आगमकेरहस्य बताने वाले शुद्ध उपदेशक गुरु न मिले। इसलिये तेरेको निश्चय अच्छा लगा कि माल खाना और मोक्ष जाना । अब तेरेको भर्त महाराजका व्यवहार दिखाते हैं, कि देख जिस वक्तमें श्री भर्त महाराज आरसा महलमें वस्त्र आभूषण पहिने हुये बिराजमान थे उस वक्तमें एक हाथकी छेड़ली ( कनिष्टका ) अङ्गुलीमें से अंगूठी गिर पड़ी उस वक्तमें औरतो सब अंगुली अच्छी दोखती थी और वह अंगुली बुरी मालूम होती थी। उस वक्त भर्त महारजने दिलमें विचारा कि यह अंगुली क्यों बुरी दोखती है। औरतो सब अच्छी लगती हैं । इसलिये मालूम होता है कि दूसरेकी शोभासे इसकी शोभा हैं ऐसा विचार करके और धीरे २ सब वस्त्र और आभूषण उतार करके अलग रख दिये। तब कुल शरीर उस वक्त आभूषणके बिना कुशोभा रूप दीखने लगा। उस वक्त भर्त महाराज अपने प्रणामो में विचार करने लगे कि रे जीव, पर बस्तुसे शोभा हैं सो पर बस्तु की शोभा किस कामकी, निज बस्तुसे शोभा होय वही शोभा काम की है। इसलिये उन्होंने पर वस्तुसे स्वय वस्तुका पृथकभाव ( जुदा भाव ) कर्ण रूप व्यवहार करके केवल ज्ञान, केवल दर्शन उत्पन्न किया । इस पृथक व्यवहारके बिना जो केवल, ज्ञान, केवल दर्शन उत्पन्न किया हो तबतो तेरा आख्यान ( दृष्टान्त ) कहना और निश्चय जुदी ठहराना ठीक था। नहींतो अब हम जिस रीति से निश्चय व्यवहार का अर्थ ऊपर लिख आये हैं उसीरीतिसे निश्चय व्यवहार मानो । जिससे तुम्हारी आत्माका कल्याण हो, नतु तुम्हारी रीतिका निश्चय मानना ठीक है। और शुभ चारित्रका जो भेद लिखा है सो तो प्रसङ्गात नाम मात्र दिखाया है। परन्तु इसकी विशेष व्यवस्था आगे कहेंगे ।
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