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द्रव्यानुभव-रत्नाकर।]
[७ (प्रश्न ) अजी आप व्यवहार कहते हो सो तो ठीक है परन्तु व्यवहार में कुछ फल नही, क्योंकि देखो श्री मरु देवी माताको हाथी पर चढ़े हुये केवल ज्ञान हुआ। और भर्त महाराजको भी आरीसा भवन ( कांचके महल ) में केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ, तो उन्होने तुम्हारा व्यवहार रूप चारित्र किस रोज किया था ? इसलिये व्यवहार कुछ चीज नहीं।
(उत्तर ) भोदेवान् प्रिय ! श्री मरु देवी माता और भर्त महाराजका जो नाम लेकर व्यवहारको निषेध किया सो तेरेको श्री जिन भगवानके कहें हुवे आगमको खबर नहीं जो तेरेको इस स्याद्वाद आगमके रहस्यकी खबर होती तो ऐसा विकल्प कभी नहीं उठता। और जो तू दृष्टान्त देकर निश्चयको कहता है सो निश्चयतो गधाकी सींग है। और जो श्री बीतराग सर्वज्ञ देवने जिस रीतिसे निश्चय व्यवहार कहा है उस निश्चयको तो तू जानता ही नहीं है, यदि बीतरागके निश्चयको समझता तो इन्द्रियोंके भोग करना और त्याग पचखानका भंग करना ऐसा कदापि न होता। अतः अब तुम
को हम किश्चित रहस्य दिखाते है । व्यवहार श्रीमरु देवी माता अथवा भर्तमहाराजने किया था उसका रहस्य तेरेको न जान पड़ा। सो तेरेको
हम समझाते हैं कि, देखो व्यवहार चारित्रके दो भेद हैं । एकतो शुद्ध व्यवहार चारित्र, दूसरा शुभ व्यवहार चारित्र ! अब प्रथम शुद्ध व्यवहारके लौकिक और लोकोत्तर करके दो भेद हैं। लोक उत्तरका तोकोई भेद है नही, और वह चारित्र शुद्ध व्यवहार सिद्धके जीवों में है। और लौकिक शुद्ध व्यवहार चारित्रके दो भेद हैं, एकतोलिङ्गादि करके । रहित, दूसरा लिङ्गादि संयुक्त । तो जो लिङ्गादि करके रहित शुद्ध व्यवहार चारित्र है उसमें गृहस्थ, अन्य लिङ्गादि शुद्ध व्यवहार चारित्र को पालते हुये केवल ज्ञान ( अथवा सिद्ध ) को प्राप्त होते हैं। इस लिये मरू देवी माता और भर्त्त महाराज लिङ्ग करके रहित शुद्ध व्यवहार चारित्रको अङ्गीकार करते हुये, उसीसे उनको केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ था। सो अब हम उनका शुद्ध व्यवहार दिखाते हैं कि
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