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द्रव्यानुभव-रत्नाकर।]
[ ११ मिले तो उत्तम कुल जाति मिलना बहुत कठिन हैं। कदाचित् उत्तम कुल जाति भी मिले तो जैन धर्म की प्राप्ति होना बहुत कठिन है। यद्यपि जिन धर्म की भी प्राप्ति होजाय तो शुद्ध गुरू उपदेशकका मिलना बहुत कठिन हैं, कदाचित् शुद्ध गुरू उपदेशकका संयोग भी मिले तो उसका उपदेश श्रवण करना बहुत दुर्लभ, (मुश्किल ) हैं। शायद उसका उपदेश भी श्रवण करे तो उसमें प्रतीति आनी बहुत कठिन हैं। जो प्रतीत भी होगई तो उसमें प्रबृति अर्थात् पुरुषार्थ करना बहुत हो कठिन है । इसलिये हे भव्य प्राणियों ! इस जिन धर्म रूपी चिन्तामणि रत्नको लेकर इस राग, द्वेष रूपी कागलाके पीछे क्यों फेंकते हो? क्योंकि ऐसा संयोग बड़े प्रबल पुण्यके प्रभावसे प्राप्त हुआ हैं। फिर इसका मिलना कठिन होगा। इसलिए चेतो, चेतो, चेतते रहो। इसरीतिसे निश्चय व्यवहारकी व्यवस्था कही।
___ अब कार्य कारणकी पहिचान कराते हैं कि, कारणके बिना कार्य उत्पन्न नहीं होता इसलिये कारण कहने की अपेक्षा हुई। सो कारण दिखाते हैं कि, कारण कितने हैं सो शास्त्रोंमें कारण बहुत जगह दो कहे हैं, एकतो उपदान कारण, दूसरा निमित्त कारण, और विशेष आवश्यकके विषे समवाई कारण ऐसा कहा हैं इसीका नाम उपादान कारण हैं। और ' आप्त मीमांसामें कारण तीन कहे हैं। “सम्वाई असम्वाई, निमित्त भेदात्" समवाई कारण और उपादान कारणतो एकहीं हैं, कुछ भेद नही, और असमवाई कारणको नामन्तर भेद करके असाधारण कारण भी कहते हैं। तत्वार्थ सूत्रकी टीका निमित्त कारणके दो भेद कहे हैं। एकतो निमित्त कारण, दूसरा अपेक्षा कारण, तथा ही “अपेक्षा कारण पूर्व मित्यनेन उच्यते यथाघटस्योत्पत्तावपेक्षा कारणं व्योमादि उपेक्षते इति उपेक्षा" इसरीतिसे कारणोंका नाम कहा। अब इन कारणोंका जुदा २ लक्षण कहते हैं।
प्रथम उपादान कारणका ऐसा लक्षण हैं किं; कारण कार्य को उत्पन्न करे और अपने स्वरूपसे बना रहे, और कारणके नष्ट होने
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