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द्रव्यानुभव-रत्नाकर ।]
[३ हुआ। अव प्रथम शुद्ध शब्दको भी धातु प्रत्ययसे दिखाते हैं। जैसे “शुद्ध-त-शु-शुद्ग" शुद्ध धातु शुद्धी अर्थमें ए कत् प्रत्यय कर्मवाचक है। शुद्ध अर्थात् निर्लेप जिसमें कोई तरहका लेप न हो। “शुद्गते असौशुद्गा शुद्गश्चातौ व्यवहार शुद्ध व्यवहार ।” शुद्ध ब्यवहारका निषेध अर्थात् अशुद्ध व्यबहार कहता है। इस रीतिसे व्यवहार
और शुद्ध और अशुद्ध शब्द सिद्ध हुआ, सो श्री जिन आगममें व्यवहारके दो भेद कहे हैं । एक तो शुद्ध व्यवहार, दूसरा अशुद्ध व्यवहार । सो प्रथम शुद्ध व्यवहारका अर्थ आगमानुसार दिखाते हैं कि, शुद्ध व्यवहारका तो कोई तरहका भेद नहीं किन्नु जिज्ञासुओंके समझानेके वास्ते ज्ञान, दर्शन, चारित्रको जुदा २ कहना, अथवा नीचेके गुणठानेसे ऊपरके गुणठानेको चढ़ाना, इस रीतिके जिज्ञासुओंके समझानेके वास्ते भेद हैं। परन्तु असल शुद्ध व्यवहार तो जो शुक्लध्यानके दूजे पायेमें निर्विकल्प ध्यान कहा है उस ध्यानका करना है और वही शुद्ध व्यवहार भी है। उस शुक्ल ध्यानका तो वर्णन हम आगे करेंगे, अब अशुद्ध व्यवहारके भेद कहते हैं। ___ यहां अशुद्ध व्यवहारके चार भेद दिखाते हैं। (१) एकतो शुभ व्यवहार (२) दूसरा अशुभ व्यवहार (३) तीसरा उपचरित्र व्यबहार (४) चौथा अनुपचरित व्यवहार । इस रीतिसे व्यवहारके भेद हैं। परन्तु शुद्ध व्यवहार और निश्चय इन दोनोंका मतलब एक ही है। क्योंकि निश्चय शब्दका धातु प्रत्यय हम ऊपर लिख आये हैं। उस हिसाबसे तो वस्तु जो विखरी हुई पड़ी हैं, उसके इकट्ठा (जमा) करनेका नाम निश्चय हैं।
और शुद्ध व्यवारके कहनेसे निर्मल नाम मल करके रहित ऐसी जो वस्तु पृथक ( जुदा ) की हुई वस्तु उसको शुद्ध व्यवहार कहेंगे। इसलिये शद्ध व्यवहार और निश्चयका मतलब एक ही है। दूसरी रीतिसे और भी देखो कि, जो ऊपर लिखी धातु प्रत्यय है उसी रीतिसे अर्थ करें तो विखरी हुई वस्तुका इकट्ठा करना भी एक तरहका व्यवहार हुआ। बिना व्यहारके निश्चय कुछ नहीं ठहरता । क्योंकि
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