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“कियेत्यपि ततोऽतीते काले श्वेताम्बरोऽभवत्। द्राविडोयापनीयश्च केकीसंघश्च मानतः॥॥
। केकीपिच्छ श्वेतवासो द्राविडो यापनीयकःनिःपिच्छश्चेति पंचते जैनाभासाःप्रकीर्तिताः॥" । पर्चासागर
इससे सिद्ध होता है कि नो मनियोंको पीओ रहित मानते हैं वे जैनाभास हैं, साक्षात् जैनी नहीं हैं। [१०] इसलिये पोछी कमंडलुके बिना मुनिका स्वम्म बन ही नहीं सकता।
-चर्चा आठवीं प्रश्न-श्रीमुनिराज कारण मिलनेपर जलमें प्रवेश करें या नहीं ? तमा नाघ आदि पानीको सवारी में बैठे या नहीं?
समाधान-जो महाव्रती मुनि अपने वा परके लिए जलमें प्रवेश करें अथवा नावमें बैठकर पार उतरें तो वे उसका प्रायश्चित्त लेते हैं। वह प्रायश्चित्त इस प्रकार है-यदि मुनि चार अंगुल जलमें प्रवेश करें। तो एक कायोत्सर्ग धारण करें। यदि घुटनेतक जल में प्रवेश करें तो एक उपवास धारण करें। यदि घुटनेसे चारचार अंगुल अधिक जलमें प्रवेश करें तो दूना-चूना उपवास करें। यदि सोलह धनुष पर्यन्त जलमें प्रवेश करें तो कायोत्सर्ग उपवास आदि उससे भी अधिक-अधिक करें। यदि अपने वा दूसरेके लिये नावमें बैठकर पार उतरें तो ज्ञानी और अनेक कलाओंके जानकार वा समयके जानकार आचार्य यथायोग्य थोड़ा वा बहुत प्रायश्चित्त देवें। यही बात श्रीइन्द्रनंवि विरचित प्रायश्चित्त ग्रंथमें लिखी है---- "जानुघ्ने तनृत्सर्गःक्षमणं चतुरंगुले । द्विगुणाः द्विगुणास्तस्मादुपवासाः स्युरम्भसि ॥३६॥ १. कितना ही काल बीत जानेपर श्वेतांबर हुए फिर द्राविड यापनीय और केकीसंघ हवा परन्तु केकीसंघ, श्वेतांबर, द्राविड, यापी
नौय और पीछी रहित (नि:पिच्छ ) ये सब जेनाभास हैं। १. इसका अर्थ संस्कृत टीकाके अनुसार यह होता है-घुटनेपर्यत पानीमें होकर जावे तो एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है। घुटनेसे
चार अंगुल ऊपर पानी में होकर जानेका एक उपवास प्रायश्चित्त है। इससे चार-चार अंगुल पर पानी में होकर जानेका दूने दूने उपवास प्रायश्चित्त है ।। ३९ ॥ ये ज. अर्थ कायोत्सर्ग और उपवास कहे गये हैं वे सोलह धनुष ( चौसठ हाथ ) पर्यन्त लंबे फैले हुए जल-जन्तुओंसे रहित जलमें होकर जानेके हैं। न्यूनके नहीं । तथा जलजन्तुसे भरे हुए पानीमें होकर जानेका प्रायश्चित्तम पहले कहे हुये कायोत्सर्ग और उपवाससे अधिक कायोत्सर्ग और उपवास है ॥४०॥ अपने निमित्त या परके निमित्त प्रयुक्त
चनामाचारभरवार