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बाईस
२६-५६ भाद्रव शुक्ला चतुर्थी के दिन शिष्यों को संबोधन तथा युवाचार्य
भारीमलजी के गुणों का वर्णन । ५७-८७ आचार्य भिक्षु पर आक्षेप और उनका स्पष्टीकरण । ८८-८९ संतों द्वारा शारीरिक पीड़ा के विषय में पृच्छा और स्वामीजी
का उत्तर। ९०-९९ आत्म-निवेदन और शिष्यों को शिक्षा ।
१०० मुनि रायचन्दजी को मोह-विसर्जन का उपदेश । १०१-१०३ मुनि भारीमलजी का आत्म-निवेदन । १०४,१०५ स्वामीजी का उत्तर। १०६-१०९ सतयुगी का निवेदन और स्वामीजी का समाधान । ११०-१२३ आत्मलीन स्वामीजी के स्वरूप का निरूपण ।
१२४ ग्रन्थावली का प्रणयन । १२५-१२९ शिष्य-संपदा (साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविकाएं)। १३०-१३४ आचार्य भिक्षु की संलेखना। १३५-१६० त्रिपदी की शरण तथा अतिचार की आलोचना । १६१-१७७ क्षमायाचना का उपक्रम आदि । १७८-१८३ सम्वत्सरीपर्व की आराधना का पारणक । १८४,१८५ मुनि खेतसीजी का अनुरोध और स्वामीजी का उत्तर । १८६-१८९ भाद्रवशुक्ला नवमी, दशमी और एकादशी-इन तीन दिनों की
चर्या । १९०-१९६ भाद्रवशुक्ला द्वादशी के संथारा-ग्रहण की उत्सुकता । १९७-१९९ कच्चीहाट से पक्कीहाट में पादार्पण । २००-२०२ मुनि रायचन्द्र का स्वामीजी के पास आना, निवेदन करना । २०३-२०६ उनकी बात सुन मुनि भारीमलजी से संथारा पचखना ।
२०७ संथारे पर जनभावना का उद्रेक । अठारहवां सर्ग
१-२ अनशन के शुभ संवाद से व्याप्त आनन्द । ३-९ जनता का अविरल आगमन, हर्षातिरेक की अभिव्यक्ति और
जनभावों का पवित्रीकरण । १०-१३ अनशन के उपलक्ष्य में त्याग-वैराग्य की वृद्धि । १४-१७ रात्रीकालीन प्रवचन के लिए भारीमालजी को आदेश और स्वयं
द्वारा उसका श्रवण । १५-२० विविध स्तवनों द्वारा संगान ।
२१ धर्म-जागरणा से रात बीती ।