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मन्दरचारी आकाश- पुरुष
दूर पर अचिरावती की श्वेत धारा दीख रही है। उसके तट पर देव द्रुमों की छाया में कुछ मृगों को विचरते देख रहा हूँ । उधर झुरमुटों के पीछे मल्लिग्राम के घरों की गेरुई पीठें झाँक रही हैं । अविराम विहार करता कब मल्लों के इस प्रदेश में आ निकला हूँ, पता ही नहीं चला । भूगोल की सीमाओं पर निगाह अटकती नहीं है । असंख्य ग्रह-नक्षत्रों से भरा खगोल भी अंधेरी रात में मेरे ध्यानस्थ शरीर से रभस करता निकल जाता है । अपनी हड्डियों के दरों में उसे एक सार्थवाह की तरह गुज़रते देख लेता हूँ । अनुत्तर देश की इस यात्रा में भूलोक और द्युलोक एक चित्रपट की तरह सामने आते हैं, अपने रहस्यों की पिटारियाँ खोलते हैं, और फिर अपनी ही सीमा में सिमटते चले जाते हैं ।
बर्फानी रातों के तूफ़ान जाने कहाँ सिरा गये । हवा में एक सुखद लौनापन आ गया है । कोई विचित्र स्मृति-संवेदन प्राण के तटों को छू जाता है । जान पड़ता है, दक्षिण पवन बहने लगा है मलय का यह स्पर्श जाने किस परा उज्ज्वलता के पवित्र बोध से हृदय को पावन कर देता है ।
वनांगन के दूर फैले प्रान्तरों में जहाँ-तहाँ पलाश फूटे हैं । इन रक्तिमसिन्दूरी फूलों में भीतर का प्रवाही रक्त, स्थिर ज्वालाओं में थमा रह गया है। सफेद, लाल, पीले कमलों से तालाब भर उठे हैं । उन पर सुरभित पराग की पीली सूक्ष्म नीहारिका-सी छायी रहती है । उनके तटों पर अशोक और कर्णिकारवन लाल फूलों से भर उठे हैं । उनके कमल - केसर से पांशुल तल देश में हंस और सारस- मिथुन केलि क्रीड़ा में विदेह भाव से लीन हैं ।
गाँवों के आँगनों में तीसी के नीले फूलों पर लहराती उमिलता देखता हूँ, तो उसमें आत्मा का विशुद्ध परिणमन गोचर हो जाता है । सरसों के पीले फूलखेतों में यह कौन अपनी पीली ओढ़नी उतार कर, अन्तर-सरोवर में नहाने को निरावरण उतर गई है ।
प्रकृति के इस सौन्दर्य से पीठ फेर कर कहाँ जाऊँगा । प्रकृत और आत्मस्थ होना चाहता हूँ, तो सबको अपने-अपने निज भाव में परिणमन करते देखूंगा
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