________________
१३
की अखण्ड धारा। पर्याय के पत्ते झड़ गये हैं, त्वचाएँ सूख कर, पपड़ा कर गिर गई हैं। ये लूंठ विनाशीकता की मूर्तियां बने खड़े हैं। . . पर इनको भेद कर, अपने हाड़-पिंजर को भेद कर, देख रहा हूँ, अविनाशी द्रव्य की शाश्वती रसधारा । तत्व का चिरन्तन वसन्त · · · । नास्ति बीच की एक अवस्था मात्र है : अन्तिम है केवल अस्ति । अस्ति · · अस्ति अस्ति । वही तो मैं हूँ : वही तो सब हैं।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org