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अहिंसा का मान-दण्ड
हिंसा और अहिंसा के सम्बन्ध में आज हमें एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करना है । जगत् में असंख्य प्रकार के प्राणी हैं और यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञात होगा कि प्राणियों के ये असंख्य प्रकार भी अपने आप में अनेक प्रकार के हैं । तात्पर्य यह कि जब हम विश्व की अनन्त-असीम जीव राशि पर विचार करना आरम्भ करते हैं तो एक नहीं, अपितु अनेक आधार ऐसे मिलते हैं, जिनसे समग्र जीव-राशि का वर्गीकरण होता है।
उदाहरणार्थ---कोई जीव एकेन्द्रिय है, और कोई द्वीन्द्रिय है, कोई त्रीन्द्रिय है, कोई चतुरिन्द्रिय और कोई पंचेन्द्रिय है। इनके अतिरिक्त कोई स्थूल शरीर वाला हाथी है, ऊंट है या महाकाय मत्स्य है, तो कोई अतीव सूक्ष्म शरीरवाला है। ऐसा भी सुना जाता है कि सुई की नोंक के बराबर निगोद-कार्य के छोटे से खण्ड में अनन्त-अनन्त जीवों का विकास होता है। हिंस्य और हिंसक की भूमिका
यहाँ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि के रूप में जो वर्गीकरण किया गया है, वह जीवों के शरीर की बनावट के आधार पर है और साथ ही उनकी चेतना के विकास की तरतमता के आधार पर भी । एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय आदि जीवों के शरीर की बनावट में अन्तर होता है। परन्तु शरीर की बनावट का ही भेद उसमें हो, इसके अतिरिक्त अन्य कोई भेद न हो; ऐसी बात नहीं है। उनमें क्रमश: इन्द्रियों की संख्या बढ़ती चली गई है और इसी वृद्धि के कारण उनकी चेतना का विकास भी अधिक से अधिकतर होता चला गया है ।
यह तो उन जीवों की बात हुई-जिन्हें हिंस्य कहते हैं; अर्थात् जिनकी हिंसा होती है । परन्तु हिंसा करते समय सब हिंसक भी एक रूप के नहीं होते । किसी के अन्तःकरण में हिंसा की भावना बहुत उग्र होती है, क्रोध की ज्वाला बड़ी ही तीव्र होती है, द्वेष की वृत्ति अत्यन्त बलवती होती है; और किसी के हृदय में हिंसा की वृत्ति मध्यम होती है या मन्द होती है या जैसा कि केवल द्रव्य-हिंसा की विवेचना करते समय कहा जा चुका है, हिंसा की वृत्ति होती ही नहीं है। हिंस्य और हिंसक की अनेक भूमिकाओं में तारतम्य
इस प्रकार हिंस्य और हिंसक की अनेकानेक भूमिकाएँ हैं और इन दोनों के
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