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अहिंसा-दर्शन
परन्तु दुर्गुणों की दुर्गन्ध क्या कभी प्रशंसा के फूलों की सुगन्ध से पवित्र हो सकती है ? ऐसा सोचना भी जड़-बुद्धि का परिचायक है । गहराई से विचार करना चाहिए कि एक जगह मैला पड़ा है । किसी ने उसे फूलों से ढंक दिया है। थोड़ी-सी देर के लिए दुर्गन्ध भले ही छिप गई है, किन्तु आखिर तक वह छिपी नहीं रहेगी और वह गन्दगी फूलों को भी गन्दा करके ही रहेगी। सदाचार-विहीन व्यक्ति के विषय में भी यही बात है । फिर जो व्यक्ति दुराचारी ही है; उसे केवल धन की बदौलत सम्मान दे कर और उसके अभिनन्दन में मानपत्र भेंट करके आप भले ही सातवें आसमान पर चढ़ा दें, किन्तु इससे वह अपनी या समाज की भलाई नहीं कर सकेगा। वह उस सम्मान को पा कर अपने दुर्गुणों के प्रति अरुचि और असन्तोष अनुभव नहीं करेगा, अपने दोषों को घृणा की दृष्टि से नहीं देखेगा, उनके परित्याग के लिये भी तत्पर नहीं होगा, अपितु अपने दोषों के प्रति उत्तरोत्तर सहनशील ही बनता जाएगा। इस प्रकार यदि उसके दोषों को और आचरणहीनता को प्रकारान्तर से प्रतिष्ठा मिलेगी तो समाज में वे दोष घर कर जाएँगे।
कथन का आशय यही है कि आज समाज में व्यक्तित्व को नापने का मापक 'पैसा' बन गया है । जिसके पास जितना अधिक 'पैसा' है, वह उतना ही बड़ा आदमी है । साधारण आदमी, जिसके पास पैसा नहीं है, किन्तु जीवन की अपेक्षित पवित्रता है, अच्छे विचार हैं और विवेक-बुद्धि है, क्या उसे कभी कुर्सी पर बैठे देखा है ? सभापति बनते देखा है ? समाज में आदर पाते देखा है ? यह बात रहस्यपूर्ण इसलिए है कि समाज में 'धन' की कसौटी पर ही बड़प्पन को परखा जाता है और सदाचारी निर्धन की कोई पूछ नहीं होती।
मैंने तो अनेक बार देखा है और आए दिन इस तरह की अशोभनीय घटनाएँ हर कोई भी देख सकता है। एक व्यक्ति के घर में सुन्दर और सुलक्षणी पत्नी मौजूद है, सारी व्यवस्था है और गृहस्थी की गाड़ी भी ठीक-ठीक चल रही है, किन्तु उसने किसी तरह पैसा कमा लिया तो तुरन्त दूसरा विवाह कर लिया । समाज में कुछ हलचल हुई तो किसी सभा या समिति को दस-बीस हजार रुपया फेंक कर सभापति बन गए। बस, सारी काली करतूतों पर कलदार (धन) की सफेद कलई पुत गई और समस्त दुर्गुण छिप गए। समाज के वायुमण्डल में जितनी हवाएं उसके प्रतिकूल चल रही थीं, सब अनुकूल दिशा में बहने लगी और उसे वही पहले-सा आदर-सम्मान मिलने लगा। उसकी पहली पत्नी अपनी आज की दशा पर कोने में बैठी किस तरह आँसू पोंछ रही है और उसकी क्या व्यवस्था चल रही है ? उधर दूसरी पत्नी क्या-क्या गुल खिला रही है ? इन सब बातों को अब कोई नहीं पूछता ।
हाँ तो, अभिप्राय यही है कि आज मनुष्य के सामने उच्चता को नापने का मापक केवल धन रह गया है । जिसने धन कमा लिया, वही श्रेष्ठ बन गया । धन यदि न्याय से प्राप्त किया जा सकता है तो अन्याय से भी प्राप्त किया जाता है । पर, क्या
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