Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 378
________________ श्रावक और स्फोटकर्म ३६१ दो महीने बाद वही गृहस्थ एक दिन रोते हुए-से मेरे पास आए। पूछा'क्या हाल है ?' उसने कहा-'महाराज, मर गया । किसी काम का न रहा। सारी पूंजी गँवा बैठा।' मैंने कहा- "अरे, तुम्हारा तो पूर्व पुण्य का उदय हुआ था और प्रासुक काम की शुरूआत हुई थी। न कोई हिंसा न कोई पाप । फिर बर्बाद कैसे हो गए ?" यदि गलत दृष्टिकोण जनता को मिल जाता है तो उससे महा-हिंसा को उत्तेजना मिलती है । यह न करो, वह न करो ; इस तरह उसे मर्यादित चालू जीवन से उखाड़ कर दूसरे सट्टे आदि के कुपथ पर लगा दिया जाता है । फिर वह न तो इधर का रहता है, और न उधर का। वह बाह्य हिंसा के चक्र में उलझा हुआ यह नहीं समझ पाता कि सट्टे के पीछे कितनी अनैतिकता है ? आज आवश्यकता इस बात की है कि हम जैन-धर्म की वास्तविकता को समझें, साफ दिमाग रख कर समझें और फिर मन-मस्तिक पर कोहरे की तरह घनीभूत छाए हुए भ्रमों को दूर कर दें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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