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अहिंसा-दर्शन
स्यादवाद
__अनेकान्त का भाषागत रूप ही स्याद्वाद है । जो विचार या सिद्धान्त चिन्तन के रूप में अनेकान्त कहा जाता है, वही भाषा में स्याद्वाद के रूप में अभिव्यक्ति पाता है। इस तरह अनेकान्त यदि एक विचारपद्धति है, तो स्याद्वाद एक भाषापद्धति । दोनों वैसे ही हैं जैसे एक सिक्के के दो रूप । अनेकान्त एक निर्दोष विचार-प्रक्रिया है, तो स्याद्वाद एक निष्पक्ष अभिव्यक्ति ।
'स्यात्' शब्द का अर्थ होता है-'कथंचित्' । इसीलिए स्याद्वाद को 'कथंचित्वाद' के नाम से भी जाना जाता है । स्याद्वाद उस अभिव्यक्ति की राह दिखाता है, जिससे ज्ञान सही ढंग से प्रकाशित हो जाए और उससे किसी अन्य व्यक्ति का ज्ञान दोषपूर्ण जाहिर न हो । क्योंकि यदि एक व्यक्ति का ज्ञान सही है, सत्य है इसका यह मतलब नहीं होता कि दूसरे का ज्ञान असत्य है । और ऐसा कहने का किसी को 'अधिकार' भी नहीं होता; कारण सबके ज्ञान अधूरे ही रहते हैं। केवल सर्वज्ञ का ज्ञान ही पूर्ण एवं सब तरह से सत्य होता है । एक पदार्थ के अनेक धर्म या गुण या पहलू होते हैं । कोई एक व्यक्ति एक पहलू को जानता है, तो दूसरा उसके दूसरे धर्म को या दूसरे पहलू को । तब एक पहलू को जानने वाला दूसरे पहलू वाले को गलत कैसे कह सकता है, वह तो एक पहलू को ही जानता है, दूसरे को जानता ही नहीं । यहाँ पर स्याद्वाद कहता है जिस प्रकार किसी वस्तु के एक पहलू को जानने वाला सही है, उसी प्रकार दूसरे पक्ष को भी जानने वाला सही है । किन्तु दोनों के ज्ञान पूर्ण नहीं है। उन्हें पूर्णतः सत्यता प्राप्त नहीं । दोनों की सत्यता किसी खास सापेक्षता में है । अतः स्याद्वाद अपेक्षा पर या सीमा पर जोर देता है। इस सापेक्षता स्पष्टतः इस प्रकार मालूम हो सकती है । एक व्यक्ति को कोई पुत्र कहता है, कोई पिता कहता है, कोई पति कहती है, कोई भाई कहता है, कोई दोस्त कहता है । इस तरह विभिन्न लोग उसे विभिन्न रिश्तों से सम्बोधित करते हैं । यहाँ पर यदि उस व्यक्ति को पिता कहने वाला अपने को बिल्कुल सही माने और दूसरों को गलत, या पुत्र कहने वाला अपने को सही माने और दूसरे को गलत तो वास्तविक स्थिति क्या समझी जाएगी। यद्यपि आदमी एक ही है, उससे रिश्ते अनेक हैं और अपने-अपने रिश्ते के अनुसार उसे सम्बोधित करने वाले सबके सब ठीक हैं। ऐसा नहीं कि जो उसे पिता कहता है वह ठीक है और पुत्र कहता है वह गलत है । रिश्ते ज्ञान के पहलू के प्रतीक हैं, अपेक्षा के प्रतीक हैं । यही बात किसी भी वस्तु के ज्ञान के सम्बन्ध में होती है । अतः किसी भी व्यक्ति को चाहिए कि अपना ज्ञान किसी खास सीमा या किसी खास अपेक्षा में सही समझे और उसी के अनुसार अभिव्यक्ति भी करे; ताकि दूसरे के ज्ञान पर किसी तरह आक्षेप नहीं आए।
ऐसी अभिव्यक्ति के लिए स्यात् का प्रयोग आवश्यक हो जाता है । स्यात् धट है और स्यात् घट नहीं है । इस प्रकार की अभिव्यक्ति में न है, गलत है और न ही
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