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वैचारिक अहिंसा और अनेकान्त
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जैनधर्म में समभाव या समताभाव को विशेष प्रधानता दी जाती है और समता के भाव से ही अनेकान्त का जन्म होता है । अनेकान्त और अहिंसा एक-दूसरे के पूरक हैं । विचारात्मक अहिंसा का ही नाम अनेकान्त है या यों कहें कि बौद्धिक अहिंसा ही अनेकान्त है। इसमें किसी एक पक्ष या एक अंश को प्रधानता नहीं दी जाती, न उसके लिए आग्रह ही होता है । यह सबके प्रति समान आग्रह रखने को कहता है । इसका बहुत ही व्यापक क्षेत्र है । इसके अन्दर सभी एकान्तवादी विचार आ जाते हैं । यह धर्म, दर्शन, संस्कृति सभी क्षेत्रों तक अपना स्थान रखता है । इसके बिना जीवन के किसी भी व्यवहार का चलना मुश्किल हो जाता है । अनेकान्तः एक विश्लेषण
जैनतत्त्वमीमांसा में अनेकान्त का विश्लेषण प्राप्त होता है । जब भ० महावीर ने सांसारिक वस्तुओं का मौलिकता के दृष्टिकोण से अध्ययन किया तो उन्हें जानकारी हुई कि हर एक पदार्थ चाहे वह बिल्कुल बड़ा हो अथवा बिलकुल छोटा, पर उसमें अनन्त धर्म होते हैं ।' अनेक गुण होते हैं । जैनदर्शन में गुण शब्द के लिए 'धर्म' शब्द प्रयोग होता है। किन्तु यह सम्भव नहीं कि एक साधारण व्यक्ति किसी वस्तु के सभी धर्मों को जान सके । कोई व्यक्ति कह सकता है कि वह अपनी कलम को अच्छी तरह जानता है, क्योंकि उसकी कलम उसके पास है, वह उससे लिखता है। लेकिन उसका ऐसा कहना गलत होगा । इतना वह कह सकता है कि कलम अमुक रंग की है, उसमें पीली या उजले रंग की निब लगी है, अमुक कम्पनी की बनी हुई है । मोटी है अथवा पतली है । लेकिन क्या वह बता सकेगा, यदि उससे पूछा जाय कि उसकी कलम तलवार, कुदाल, हँसिया, मोटरकार, जहाज आदि से कितनी भिन्न है ? शायद ऐसा बताना उसके लिए असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होगा। इसी तरह कलम के सम्बन्ध में उससे और भी प्रश्न पूछे जा सकते हैं । और सभी प्रश्नों के उत्तर के लिए उसे उन सभी वस्तुओं को जानना चाहिए, जिनसे सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते हैं । किन्तु सभी वस्तुओं के विषय में जानकारी रखना एक साधारण व्यक्ति के लिए असम्भव है। एक साधारण व्यक्ति न तो एक वस्तु को पूर्णतः जानता है और न सभी वस्तुओं को ही। क्योंकि एक वस्तु को जानने का अर्थ होता है, सब को जानना और सबको जानने का,
१ "अनन्त-धर्मात्मकं वस्तु" (स्याद्वादमंजरी)
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