Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 394
________________ वैचारिक अहिंसा और अनेकान्त 'न है' । क्योंकि घट है, इसका अर्थ है कि घट 'जिस रूप में और जिस स्थान या समय में देखा जा रहा है, उस रूप में है, किन्तु अन्य रूप, स्थान और समय में वह नहीं देखा जा रहा है, तो उस रूप में वह नहीं । अतः जो यह कहता है कि घट है कहना ठीक है और घट नहीं है, कहना गलत है । वह निश्चित ही एकान्तवादी है, अनेकान्तवादी नहीं । अनेकान्तवाद तो सब दृष्टियों से देखता है और सबको सही मानता है । प्रतीकात्मक चिन्ह एकान्तवाद का प्रतीकात्मक चिह्न 'ही' है और अनेकान्तवाद का 'भो' । एकान्तवादी कहता है 'मेरा सिद्धान्त ही ठीक है' इसका अर्थ होता है कि अन्य जितने भी ज्ञान हैं, गलत हैं । एकान्तवादी दूसरे के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ता, वह पूरी सम्भावना पर स्वयं अधिकार कर लेता है । इसके विपरीत अनेकान्तवादी कहता है कि 'मेरा भी सिद्धान्त ठीक है' । ऐसी अभिव्यक्ति से दूसरे के लिए स्थान बच जाता है । 'मेरा भी सिद्धान्त ठीक है' का अर्थ होता है कि मेरे अलावा औरों के भी सिद्धान्त ठीक हैं । अहिंसा ३७७ अहिंसा के सम्बन्ध में अब तक जो चर्चा की गई है उसमें यह देखा गया है कि अहिंसा का पूर्ण पालन तब होता है । जब मन, वाणी और शरीर से हिंसा न की जाय, न करवाई जाए और न हिंसा का अनुमोदन किया ही जाए। यहाँ पहला स्थान मन का अथवा चिन्तन का है । यह अनेकान्त का या अहिंसा का प्रथम चरण है । जब विचार में किसी को गलत साबित किया जाता है, तब द्वेष पैदा होता है । यदि सबको सही मान लिया जाए, सभी को सत्य माना जाए, केवल अपने ही सिद्धान्त को सही न मान कर औरों के सिद्धान्तों को भी सही माना जाए उनका आदर किया जाए तो किसी भी प्रकार के द्वेष को स्थान नहीं मिलता, फिर हिंसा का तो प्रश्न ही नहीं उठता । अनेकान्त हमें यही सिखाता है कि किसी एक सिद्धान्त के प्रति आग्रह न करो, सबके लिए आग्रही बनो, यानी समाग्रही बनो। अहिंसा की दूसरी स्थिति है - वाणी, जिसकी पूर्ति स्याद्वाद से होती है । स्याद्वाद सिखलाता है कि ऐसी अभिव्यक्ति करो, जिससे सबकी सत्यता जाहिर हो । ऐसा नहीं कि तुम घोषित करो 'मैं ही सत्य हूँ, फिर तो दूसरा तुमसे झगड़ने को तैयार हो जाएगा और उसके परिणामस्वरूप हिंसा होगी । कहो - मैं भी 'ठीक हूँ,' ताकि दूसरे के मन में किसी प्रकार का दुःख पैदा न हो, उसे भी सन्तोष हो कि अभिव्यक्ति करने वाला अपनी सत्यता की अभिव्यक्ति के साथ हमारे लिए भी स्थान छोड़ रहा है। इस प्रकार वैचारिक अहिंसा, अनेकान्त और स्याद्वाद से अहिंसा की पूर्वपीठिका तैयार होती है, क्योंकि अहिंसा का विचारगत रूप अनेकान्तवाद है, भाषागत रूप स्याद् वाद है और आधारगत या कर्मगतरूप में तो स्वयं अहिंसा दिखाई पड़ती ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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