Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 392
________________ वैचारिक अहिंसा और अनेकान्त अर्थ होता है एक को जानना । २ जो सर्वज्ञ होता है वह सभी वस्तुओं को जानना है । लेकिन देखा जाता है कि जो सर्वज्ञ नहीं है, वह भी अपने एकपक्षीय ज्ञान को पूर्ण सत्य मान कर दूसरों को गलत बताता है, उनसे झगड़ पड़ता है । इस तरह का व्यक्ति एकाग्रही होता है; क्योंकि वह केवल एक पक्ष किसी विशेषवाद, एक सिद्धान्त के लिए आग्रह करता है । एकाग्रही को ही एकान्तवादी कहते हैं । अन्धे और हाथी इस एकान्तवादी प्रकृति की स्पष्टता के लिए आचार्यों ने एक बड़ा ही रुचिपूर्ण उदाहरण दिया है, जो इस प्रकार है - कुछ अन्धों ने हाथी के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने का विचार किया और उन सबों ने हाथी को छू कर ही जाना कि हाथी किस प्रकार का होता है जिसने पैर का स्पर्श किया उसने कहा कि हाथी खम्भे की तरह है । जिसने हाथी की दुम पकड़ी, उसने कहा कि हाथी रस्से की तरह हिलता, डोलता हुआ कोई जानवर है । जिसने कान का स्पर्श किया, उसने कहा कि हाथी सूप की तरह होता है । वे सभी अपने-अपने ज्ञान को सत्य मानने लगे और दूसरे के ज्ञान को गलत । यद्यपि उनमें से किसी ने हाथी को पूर्णरूपेण नहीं देखा था । पर वहाँ कोई आँख वाला व्यक्ति आया तो उसने उन्हें हाथी का पूर्ण रूपक सुनाया । आँख वाले व्यक्ति से, जिसने हाथी को सब तरह से देखा, हाथी के सम्बन्ध में जब वर्णन सुना, तब उन सबों को यह जानकारी हुई कि अलग-अलग वे सबके सब अंशत: सही हैं, संकीर्णतः नहीं, और यहीं पर वे एकान्तवाद से अनेकान्तवाद की ओर चले आते हैं । जहाँ पर किसी एक के लिए नहीं, बल्कि सबसे लिए आग्रह होता है, वहीं अनेकान्त पाया जाता है । जीवन का के सभी व्यापारों या व्यवहारों में अनेकान्त की झलक नजर आती है । आचार्यों के अभिमत आचार्य सिद्धसेन दिवाकर जिन्हें कि पांचवीं शती के भारत के उच्चकोटि के दार्शनिकों में स्थान प्राप्त है, अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'सन्मतितर्क' में अनेकान्तवाद की महत्ता को ऊपर उठाते हुए कहते हैं कि अनेकान्तवाद विश्व का गुरु है । अर्थात् अनेकान्तवाद एक सही ढंग से ज्ञानपथ प्रदर्शित करता है । आचार्य हरिभद्र अनेकान्त के सम्बन्ध में कहते हैं - कदाग्रही व्यक्ति की, जिस विषय में मति होती है, उसी विषय में वह अपनी युक्ति को लगाता है । परन्तु एक निष्पक्ष व्यक्ति उस बात को स्वीकार करता है जो युक्तिसिद्ध हो' । इस प्रकार आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मतितर्क', आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा, आचार्य हरिभद्र ने 'अनेकान्तप्रवेश' और 'अनेकान्तजयपताका', अकलंकदेव ने 'सिद्धिविनिश्चय' एवं उपाध्याय यशोविजय ने अपने विभिन्न ग्रन्थों में अनेकान्तवाद का प्रतिपादन किया है। २ एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः; सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्ट: ।। ३७५ Jain Education International --- षड - दर्शन - समुच्चय टीका, पृ० २२२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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