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सांस्कृतिक क्षेत्र में अहिंसा को दृष्टि
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स्वास्थ्य, चिकित्सा और शिक्षा के साधन भी स्वल्प होंगे, तो निश्चय ही भूख, बीमारी और अशिक्षा का प्राबल्य होगा । परस्पर विद्वेष की भावना से कलह का उदय होगा, फलतः शांति की चिरपुनीत धारा अवरुद्ध हो जाएगी और अशांति के तूफान के बीच हिंसा का जघन्य ताण्डव शुरू हो जाएगा । ऐसी परिस्थिति में अहिंसा के विकास एवं जन-कल्याण की अभिवृद्धि की कल्पना कौन कर सकता है ? समस्या का समाधान
___ अब पहले का प्रश्न फिर उभर कर आता है कि-'इस समस्या का समाधान क्या है ?
'जनसंख्या की वृद्धि का अनुपात कम होना चाहिए'-यह सीधा-सा उत्तर है ।
अब प्रश्न यह है कि-'यह बढ़ती हुई जनसंख्या आखिर रुके कैसे ? सहज स्वाभाविक रूप से या कृत्रिम साधनों द्वारा ?'
पहला मार्ग निश्चय ही प्रशस्त है, खतरे से खाली भी है। आन्तरिक चेतना का जागरण होने पर वैराग्य के द्वारा जो भोगासक्ति कम होती है, वह साधन ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य अन्तरंग और बहिरंग दोनों ही स्थितियों में सही समाधान प्रस्तुत करता है । ब्रह्मचर्य में आध्यात्मिक और सामाजिक दोनों ही प्रकार का निष्कलुष लाम है । धर्मपरम्पराओं का कर्त्तव्य है कि वह इसे आन्दोलन का रूप दें, जन-जीवन में नैतिक जागरण पैदा करें। यह मार्ग कठिन अवश्य है, पुरानी भाषा में तलवार की धार पर चलने-जैसा है, फिर भी असंभव तो नहीं है। हजारों ही नहीं, लाखों साधकों ने पूर्ण ब्रह्मचर्य का जीवन जीया है, और उनकी ब्रह्मचर्य-सम्बन्धी शानदार सफलताएँ हर युग के लिए प्रेरणास्रोत रहेंगी। आँशिक ब्रह्मचर्य के साधक भी कुछ कम नहीं हैं। अतः सर्वप्रथम परिवार-नियोजन की समस्या के समाधान के लिए यही पवित्र सर्वश्रेष्ठ साधन अपनाना चाहिए। यह साधन अहिंसक भी है, नैतिक भी है और धार्मिक भी। इस पथ की जो कठिनाइयाँ हैं, उनके व्यावहारिक हल खोजने की दिशा में रचनात्मक उपक्रम की अपेक्षा है । इसके लिए शुद्ध सात्विक भोजन, मादक द्रव्यों का त्याग, स्वच्छ धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा, सत्संग, आध्यात्मिक ग्रन्थों का यथोचित स्वाध्याय, समाज में सामूहिक रूप से उत्तेजक शृंगार-प्रसाधनों का परिहार, कामोत्तेजक अर्धनग्न नाचगान एवं अश्लील सिनेमा आदि का परित्याग-इत्यादि कुछ ऐसे व्यावहारिक प्रयत्न हैं, जो ब्रह्मचर्य की साधना के लिए सहायक हो सकते हैं।
। दूसरा मार्ग प्रचलित परिवार नियोजन का रूप है, किन्तु उसमें खतरा भी है। सुनने में आता है कि कृत्रिम साधनों के द्वारा परिवार नियोजन करने से नैतिक आदर्श गिर जाएँगे, विषयभोग की आकाँक्षाएँ अनियंत्रित एवं उद्दाम हो उठेगी । कुमारिकाओं एवं विधवाओं में, जो एक बंधन एवं भय की सीमा है, वह समाप्त हो जाएगी। आशंकाओं को सर्वथा झुठलाया तो नहीं जा सकता, किन्तु ये जो हेतु दिखाए गये हैं, वे कोई ऐकान्तिक अन्तिम एवं नितान्त सही ही हैं, ऐसी बात नहीं। प्रायः देखने-सुनने
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