Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 376
________________ श्रावक और स्फोटकर्म ३५६ स्पष्ट है कि जमीन में हल चलाना, न तो स्फोट करना है और न खोदना ही, क्योंकि जमीन जोतते समय न तो धड़ाका किया जाता है, और न गड्ढे ही किए जाते हैं । वास्तव में 'स्फोट - कर्म' तब होता है, जब सुरंग खोद कर उसमें बारूद भर कर एवं आग लगा कर धड़ाका किया जाता है। पहाड़ों में खान खोदने का काम बहुत पुरातन युग से चला आ रहा है । हथोड़ों और साँवरों से विशालकाय पत्थर कहाँ तक खोदे जा सकते हैं ? अस्तु, उनमें छेद करके बारूद भर दी जाती है और ऊपर से आग लगा दी जाती है । जब बारूद में आग भड़कती है तो चट्टानें टूट-टूट कर उछलती हैं । और जब वे उछलती हैं तो दूर-दूर तक के प्रदेश में रहने वाले जानवर और इन्सान के भी कभी - कभी प्राण ले बैठती हैं । कितने ही निर्दोष प्राणियों के प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं और कितने ही बुरी तरह घायल हो जाते हैं । देहली की एक घटना है। हम एक बार शौच के लिए पहाड़ पर गए हुए थे । हम पहुंचे ही थे कि कुछ मजदूर दौड़ कर आए और बोले – महाराज, भागिए, दौडिए । जब मैं विचार करने लगा तो उनमें से एक ने कहा - 'बाबा, क्या सोचता है, क्या मरेगा ? क्या यहीं पर हत्या देगा ?' तब तो हमने भी पीछे को तेज कदम बढ़ाए। मैं कुछ ही कदम पीछे हटा था कि इतने में ही वहाँ बारूद फटी, जोर का धड़ाका हुआ और उसके साथ ही पत्थर के बड़े-बड़े भीमकाय टुकड़े उछल कर आ गिरे । मैं जरा-सा बच गया, वरना वहीं जीवन- नाटक समाप्त हो जाता । ऐसे स्फोटों से पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी कुछ ठिकाना नहीं रहता है । कभी-कभी जोरदार धड़ाके से पहाड़ भी खिसक जाते हैं, और न जाने कितने मनुष्य दबकर मर जाते हैं, जिनका फिर कोई पता ही नहीं चलता । तो ऐसा स्फोटकर्म महारंभ है, महा-हिंसा है और मानव-हत्या का काम है । मजदूर लोग काम करने के लिए सुरंगों में घुसते हैं और जब कभी गैस पैदा हो जाती है तो अन्दर ही अन्दर उनका दम घुट जाता है । अभी कुछ ही दिनों पहले हम खेतड़ी गाँव से गुजरे तो मालूम हुआ कि एक खान में कई आदमी दब गए हैं । वे बेचारे खान में काम कर रहे थे। पहाड़ धंस गया और वे वहीं दब कर खत्म हो गए । ऐसे कामों में पंचेन्द्रिय की और पंचेन्द्रियों में भी मनुष्यों की हत्या का सम्बन्ध । इसी कारण भगवान् महावीर ने स्फोट-कर्म को महान् हिंसा में गिना है | श्रावक तो कदम-कदम पर करुणा और दया की भावना को ले कर चलता है, अतः उसे यह स्फोट - कर्म शोभा नहीं देता । भगवान् महावीर का यही दृष्टिकोण था, परन्तु दुर्भाग्य से आज उसका यथार्थ अर्थ भुला दिया गया है। इसके बदले कुछ इधर-उधर की निरर्थक बातें चल पड़ी हैं। जन हित के लिए कुआ खुदवाना भी महारंभ माना जाता है और यदि कोई दूसरा लोकोपकारी काम किया जाता है तो उसे भी महारंभ बताया जाता है । इसका तो यह अर्थ हुआ कि यदि कोई जैन राजा हो जाए तो वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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