Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 375
________________ ३५८ अहिंसा-दर्शन खेती में महारम्भ है, इस प्रकार का भ्रम कैसे उत्पन्न हो गया ? समग्र जैनसाहित्य में 'फोडीकम्मे' १३ ही एक ऐसा शब्द है, जिसने इस भ्रम को उत्पन्न किया है। पर, हमें ‘फोडीकम्मे' के वास्तविक अर्थ पर ध्यान देना होगा। 'फोडी' शब्द संस्कृत के 'स्फोट' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है धड़ाका होना। जब सुरंग खोद कर उसमें बारूद भरी जाती है और तदुपरांत उसमें आग लगाई जाती है तो धड़ाका होता है और बड़ी से बड़ी चट्टान भी टुकड़े-टुकड़े हो कर इधर-उधर उछल कर दूर जा गिरती है । आज के अखबार पढ़ने वाले जानते हैं कि अमेरिका और रूस आदि के वैज्ञानिक लोग जमीन के अन्दर बारूद बिछा देते हैं और जब उसमें चिनगारी लगती है तो विस्फोट होता है । आशय यह है कि बारूद के द्वारा धड़ाका करना विस्फोट या स्फोट कहलाता है। खेती करते समय विस्फोट नहीं होता । खेती में बारूद भर कर आग नहीं लगाई जाती, न जमीन में कोई स्फोट ही होता है और न बारूद से जमीन जोती ही जाती है, वह तो हल से ही जोती जाती है। एक बार जोधपुर से एक सज्जन मुझसे मिलने आए थे। उनके साथ एक बच्चा भी था, जो सातवीं कक्षा में पढ़ता था । उसने सातवीं कक्षा का व्याकरण भी पढ़ा था। मैंने उस बालक से प्रश्न किया---- किसान खेत में हल चलाता है। इसके लिए जमीन को 'जोतना' कहा जायगा, या 'फोड़ना' कहा जाएगा ? इन दोनों प्रयोगों में से शुद्ध प्रयोग कौन-सा है ? उस बालक को भी जोतना' प्रयोग ही सही मालूम हुआ। आशय यह है कि हल के द्वारा जमीन जोती ही जाती है, फोड़ी नहीं जाती । हल से जमीन का फोड़ना तो दूर रहा, कभी-कभी तो जमीन खोदी भी नहीं जाती । खोदना तब कहलाता है, जब गहरा गड्डा किया जाए। हाँ, हल से जमीन कुरेदी जरूर जा सकती है। व्याकरण का प्रमाण व्याकरण के अनुसार फोड़ना, खोदना और कुरेदना अलग-अलग क्रियाएँ हैं । खोदना-फावड़े या कुदाल से होता है, हल से फोड़ना या खोदना नहीं होता। संस्कृत भाषा के 'कृषि' शब्द का अर्थ होता है-विलेखन । 'कृष' धातु कुरेदने के अर्थ में ही आती है । क्या पाणिनि-व्याकरण, और क्या शाकटायन-व्याकरण सर्वत्र 'कृष्' धातु का अर्थ 'विलेखन' ही किया गया है । अस्तु, अभिप्राय यह है कि जमीन का जोतना 'फोडीकम्मे' के अन्तर्गत नहीं है। ‘फोडीकम्मे' का संस्कृतरूप ‘स्फोट-कर्म' होता है और पूर्वोक्त प्रकार से यह १३ जैन साहित्य में श्रावक के आचार का वर्णन करते हुए कहा है कि श्रावक को पन्द्रह प्रकार के व्यापार या कर्म नहीं करने चाहिए, क्योंकि उनमें महाहिसा होती है। शास्त्रीय भाषा में उन्हें कर्मादान कहते हैं। 'फोड़ी-कम्मे' उनमें से एक है, जिसे कुछ लोग भ्रांतिवश खेती करना समझते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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