Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 342
________________ मानव-जीवन और कृषि-उद्योग ३२५ ३२५ कोई भूखा रह कर यदि माला पकड़ेगा भी, तो कब तक पकड़े रहेगा ! भूख के प्रकोप से वह तो हाथ से छूट कर ही रहेगी। इस प्रकार वैदिक-धर्म 'अन्न को प्राण' कहता है और जैन-धर्म अन्न के दान को 'सबसे बड़ा दान'--सर्वप्रथम दान मानता है और भूख के परीषह की पूर्ति को पहला स्थान बतलाता है । इस तरह से एक-से-एक कड़ियाँ जुड़ी हुई हैं । इस अन्न की प्राप्ति कृषि से ही होती है, और इसी कारण भगवान् ऋषभदेव ने युग की आदि में जनता को कृषि-कर्म सिखाया और बताया । जैन-शास्त्रों में कहीं भी साधारण गृहस्थ के लिए कृषि को त्याज्य नहीं कहा गया है । कृषि-कर्म को महारम्भ बतलाने वाले भी एक दलील पेश करते हैं । किन्तु वह दलील अपने आप में कुछ नहीं, केवल दो शब्द हैं-'फोडी-कम्मे', जो पन्द्रह कर्मादानों में से एक है । इस दलील को जब मैं सुनता हूँ तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता ! 'फोडी-कम्मे' का वास्तव में क्या अर्थ था और क्या समझ लिया गया है । यह चुनौती देकर कहा जा सकता है कि 'फोडी-कम्मे' का अर्थ खेती नहीं है । उसका अर्थ कुछ और है, और उस पर गम्भीरता से हर समझदार व्यक्ति को विचार करना चाहिए । गम्भीर चिन्तन करने पर उसका अर्थ और अधिक स्पष्ट हो जाएगा। कृषि महारम्भ नहीं समग्र प्रमाणभूत जैन-साहित्य में कहीं एक शब्द भी ऐसा नहीं है कि जहां कृषि को महा रम्भ बतलाया गया हो । पन्द्रह-पन्द्रह सौ वर्षों के पुराने आचार्य हमारे सामने हैं। उन्होंने 'फोडी-कम्मे' का ऐसा सारहीन अर्थ कहीं नहीं लिखा, जैसा कि आप समझते हैं । यह भ्रामक अर्थ कुछ दिनों से चल पड़ा है, जिसे धक्का दे कर निकालना होगा और उसके सही अर्थ की पुनः प्रतिष्ठा करनी होगी । जो गलत धारणाएँ आज दिन प्रचलित हैं, उन्होंने हमें न इधर का रखा है, न उधर का रहने दिया है। पन्द्रह कर्मादानों में 'रसवाणिज्जे' भी आता है। जिसका अर्थ समझ लिया गया है-घी और दूध का व्यापार करना, जिसे करने पर महारंभ होता है। ऐसा समझने वाले शराब के व्यापार को त्यागना तो भूल जाते हैं, लेकिन घी, दूध के व्यवसाय का वहिष्कार उन्हें याद रहता है। कुछ लोगों ने 'असईजण-पोसणिया कम्मे' का अर्थ कर दिया है----'असंयती' अर्थात् --"असंयमी जनों की रक्षा करना महारंभ है ।" किन्तु इसका वास्तविक अर्थ है--"वेश्याओं या दुराचारिणी स्त्रियों के द्वारा अनैतिक व्यापार करके आजीविका उपार्जन करना।” परन्तु उन लोगों ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा-किसी गरीब को, भूखे कुत्ते को, और यहाँ तक कि अपने माता-पिता को भी रोटी देना महान् पाप एवं अनाचार है । क्योंकि वे भी असंयमी ही ठहरे । इस तरह इसे भी पन्द्रह कर्मादानों में शामिल कर दिया है। लेकिन, इन सब सारहीन अर्थों को और भ्रामक धारणाओं को तो बहिष्कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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