Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 361
________________ ३४४ अहिंसा-दर्शन लोग पेशोपेश में पड़ गए कि खाएं क्या ? खाने की तो कोई चीज परोसी ही नहीं गई ? रामचन्द्रजी बोले- क्या हुआ ? एक-एक हीरा लाखों के मूल्य का है, और कुछ रत्न तो सर्वथा अनमोल हैं। आप सोच-विचार में क्यों पड़े हैं। भोजन कीजिए न? प्रजाजन बोले-महाराज, अनमोल तो अवश्य हैं। इनसे जेब ही भरी जा सकती है, परन्तु पेट नहीं भरा जा सकता । पेट तो पेट के तरीके से ही भरेगा । राम ने फिर कहा-बड़ी सुन्दर चीजें हैं ! ऐसी चीजें देखने में भी कम आती हैं । ये तो पेट के लिए ही हैं । प्रजाजन कहने लगे-महाराज, इन्हें पेट में डालें भी कैसे ? यह पेट की नहीं, जेब की खुराक है। अब रामचन्द्रजी ने असली मर्म खोला । बोले-उस दिन जब मैंने प्रश्न किया था कि-घर में धान्य की कमी तो नहीं है ? तब आप लोग धन के प्रमोद में हंसने लगे थे। आपकी आँखों में तो धन का ही महत्त्व है ! आपको तो हीरे, मोती ही चाहिए । धान्य की जरूरत ही क्या है ? बस, धन मिल गया तो ठीक है, उसी से जीवन पार हो जाएगा। ___ इसके बाद रामचन्द्रजी ने फिर कहा- अब आप भली भांति समझ गये होंगे ! धन से पहला नम्बर धान्य का है । धान्य मिलेगा तो धन कमाने के लिए हाथ उठेगा, और धान्य नहीं मिला तो एक कौड़ी कमाने के लिए भी हाथ नहीं उठ सकता । आपके संकल्प गलत रास्ते पर चले गए हैं, अतः सही स्थिति को आप नहीं समझ सके हैं । अन्न की उपेक्षा, जीवन की उपेक्षा है । अन्न का अपमान करने वाला राष्ट्र भी अपमानित हुए बिना नहीं रह सकता । जिस देश के लोग अन्न को हीन दृष्टि से देखने लगें, फिर वह देश दुनिया के द्वारा हीन दृष्टि से क्यों न देखा जाए ? नीतिमय जीविका का उपदेश अन्न की समस्या जीवन की प्रमुख समस्या है। इसीलिए भगवान ऋषभदेव जब इस संसार में अवतीर्ण हुए और उन्हें भूखी जनता मिली तो धर्म का उपदेश देने से पहले उन्होंने आजीविका का ही प्राथमिक उपदेश दिया और उसमें कृषि ही एकमात्र ऐसी आजीविका थी, जिसका साक्षात् सम्बन्ध उदरपूर्ति से था । हजारों आचार्यों ने उनके उपदेश को ऊँचा उठा लिया और कहा कि उन्होंने इतना पुण्य प्राप्त किया कि हम उसकी कोई सीमा बाँधने में असमर्थ हैं । भगवान् ने जो आर्य-वृत्ति सिखलाई, उसका वर्णन आचार्यों ने और मूल-सूत्रकारों ने भी किया है। इस सम्बन्ध में लोग शायद यह कह सकते हैं कि उस समय भगवान् गृहस्थ थे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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