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श्रावक और स्फोटकर्म
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भी व्यक्ति-विशेष को महत्त्व न दे कर केवल सत्य को ही महत्व देते थे और सत्य की ही पूजा करते थे। जहाँ सत्य की की पूजा होती है, वहाँ ईश्वर की प्रतिष्ठा है। किसी देवालय में नारियल चढ़ा देना, नैवेद्य चढ़ा देना या मस्तक झुका देना सच्ची ईश्वरोपासना नहीं है, किंतु मन-वचन-कर्म से सत्य की पूजा करना ही ईश्वर ही सच्ची आराधना है।
जो मनुष्य तटस्थभाव से आगे बढ़ता है और अपनी बद्धमूल मान्यताओं के आग्रह ठुकरा देता है और उसके बदले में सामने आने वाले सत्य के समक्ष नतमस्तक हो जाता है, वही मर्म को पा सकता है, वही अपने जीवन को कृतार्थ कर सकता है । चाहे वह तरुण हो या बूढ़ा ; गृहस्थ हो या साधु ; वह अपने आप में बहुत ऊपर उठ सकता है। उसके जीवन की गति ईश्वरीय प्रगति है । वह अपनी महत्ता को अधिकाधिक ऊँचाई पर ले जाता है और गिरावट की ओर अग्रसर नहीं होता ।
परन्तु सत्य का मार्ग सुगम नहीं है । वह बड़ा कठिन, पेचीदा और टेढ़ा है। इतना कठिन और टेढ़ा कि जिसके लिए भारत के एक सन्त ने कहा है :'छुरे की धार पर चलना कठिन है। जिस मार्ग पर छुरे बिछे हों और तलवारों की नोंके ऊपर को उठी हों, उस मार्ग पर चलने वाला, नृत्य करने वाला, कितनी सावधानी से, कितनी बड़ी तैयारी के साथ एक-एक कदम रखता है और कितनी तटस्थता रखता है और आखिर नृत्य को पूरा कर ही जाता है। परन्तु सत्य का मार्ग छुरे की धार से भी तेज और टेढ़ा है और विद्वान् उसे दुर्गम भी बताते हैं । बड़े-बड़े विद्वान् भी वहाँ चलते-चलते धीरज छोड़ देते हैं । १२
किन्तु इसमें किसी से घृणा या द्वेष करने की आवश्यकता नहीं है। यह तो मार्ग ही ऐसा है कि डिग जाना, फिसल जाना या विचलित हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। गीता में योगिराज कृष्ण ने भी कहा है :-कर्म क्या है, और अकर्म क्या है ? धर्म क्या है, अधर्म क्या है ? पुण्य क्या है ? और पाप क्या है ? इसके निष्पक्ष निर्णय में बड़े-बड़े विद्वान भी भ्रमित हो जाते हैं।'
अतएव इस मार्ग पर पांडित्य का भार लाद कर भी नहीं चला जा सकता। इस पर तो सत्य की दृष्टि ले कर, अपने आपको सत्य के चरणों में समर्पित करके ही चला जा सकता है। यदि व्यर्थ के पांडित्य का भार लाद कर चलेंगे तो निष्पक्ष निर्णय नहीं कर सकेंगे । सत्य के प्रति गद्गद्माव और सहजभाव लिए हुए साधक चलेगा तो सम्भव है, उसे सत्य का पता लग सके। इसके अभाव में विद्वान भी सत्य की झाँकी नहीं पा सकता।
२ "क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया,
दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति ।" ३ "किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।"
-कठोपनिषद्
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