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अहिंसा - दर्शन
दया का झरना तो निरन्तर बह रहा था और उस बहाव के साथ ही सारी क्रियाएं भी हो रही थीं। तो उस युग की तत्कालीन परिस्थितियों में जबकि जनता पर विपत्ति के घने बादल छाये हुए थे, भयानक संकट मुँह बाए खड़ा था और लोगों को अपने प्राण बचाने दुर्लभ थे, आँखों के सामने साक्षात् मौत नाच रही थी; उस संकटकाल में भगवान् ऋषभदेव ही एकमात्र सहारे थे, वे ही जनता के लिए आशा की प्रकाशकिरण थे । करुणानिधि भगवान् ने जनता को उस भीषण संकट से उबारने के लिए ही कृषि सिखलाई, उद्योग-धन्धे सिखलाए और शिल्प कार्य बतलाए । किन्तु भगवान् की यह प्रवृत्ति किस रूप में हुई ? वस्तुतः वह हिंसा के रूप में नहीं हुई, जनता को गलत राह पर भटकाने के लिए भी नहीं हुई । भगवान् तत्कालीन जनता को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले गए। उन्होंने जनता को प्रकाश से अन्धकार की ओर नहीं ढकेला । शास्त्रकार इस बात को भूले नहीं हैं । इसीलिए जहाँ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र में युगलियों का वर्णन किया गया है और उस वर्णन में पृष्ठ के पृष्ठ भर दिए गए हैं। पर साथ में एक महत्त्वपूर्ण पद भी जोड़ दिया गया है; जिसका अर्थ होता है -- " प्रजा के हित के लिए यह सब उपदेश दिया ।' ૧ शास्त्रकार ने इतना कह कर भगवान् की जो भी मर्यादाएँ थीं, वे सभी व्यक्त कर दीं। इस प्रकार भगवान् ने जो भी कार्य किया, उसके पीछे अनुकम्पा थी; और जहाँ अनुकम्पा तथा हितभावना है, वहाँ अहिंसा विद्यमान है ।
'पयाहियाए ' - इस एक पद ने भगवान् की उच्च भावना को स्पष्टरूप से व्यक्त कर दिया है । जब तक यह पद सुरक्षित है-और हम चाहते हैं कि यह भविष्य में भी चिरसुरक्षित रहे - उससे भगवान् की दया का प्रामाणिक परिचय मिलता रहेगा ।
भगवान् ने कृषि आदि की जो शिक्षा दी, उसके पीछे उनकी क्या दृष्टि थी ? वे जनता को हिंसा से अहिंसा की ओर ले गए । वे चाहते थे कि लोग महान् आरम्भ की ओर न जाकर, अल्पारंभ की ओर ही जाएँ । यदि वे अल्पारंभ से महारंभ की ओर ले जाते, तो इसका अर्थ होता - 'प्रकाश से अन्धकार की ओर ले गए ।' उन्होंने भोली, भूखी और संत्रस्त जनता को ऐसा कर्त्तव्य बताया कि वह महारंभ से बच जाए और साथ ही पेट की जटिल समस्या भी हल कर सके और अपनी जीवनपद्धति का मानवोचित प्रशस्त पथ भी अच्छी तरह ग्रहण कर ले ।
आज भी उद्योग-धन्धों के रूप में जो हिंसा होती है, उससे इन्कार नहीं किया जा सकता | जैन-धर्म छोटी से छोटी प्रवृत्ति में भी हिंसा बताता है। गृहस्थों की बात जाने भी दें और केवल संसार - त्यागी साधुओं की ही बात लें, तो उनमें भी - क्रोध, मान, माया और लोभ के विकारयुक्त अंश मौजूद रहते हैं और इसीलिए
१ " पयाहियाए उवदिसइ ।”
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