Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 369
________________ ३५२ अहिंसा - दर्शन किसी प्रकार उचित नहीं है; क्योंकि व्यक्ति-विशेष का व्यक्तित्व सत्य के अस्तित्व से किसी भी अंश में ऊँचा नहीं है । "५ देखिए, कितनी निष्पक्षता एवं आदर्श की बात कही गई है ! जो सत्य का निर्णय करने चलते हैं, वे व्यक्ति विशेष को अधिक महत्व नहीं देते, अपितु सत्य को ही अधिक महत्व देते हैं । सत्य की प्रधानता के सम्बन्ध में स्पष्टरूप से कहा गया है "सिर के बाल पक जाने से ही कोई बड़ा नहीं हो जाता । बड़ा वह है, जिसके विचार स्पष्ट हो गए हैं, फिर भले ही वह वय की अपेक्षा छोटा ही क्यों न हो । जिसके विचारों में कोई स्पष्टता नहीं आई है, यदि उसका सारा सिर बगुले के पंख की तरह सफेद हो जाए, तब भी वह बड़ा नहीं कहा जा सकता ।" ६ प्रकाश की ओर अब प्रश्न यह है कि - 'क्या हिंसा और अहिंसा अपने आप में दो अलग-अलग चीजें हैं ? जैन-धर्म क्या सिखाता है ? वह हिंसा से अहिंसा की ओर जाने की राह बतलाता है, या अहिंसा से हिंसा की ओर जाने की ? जैन-धर्म अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाता है या प्रकाश से अन्धकार की ओर ? जो धर्म अथवा धर्मोपदेशक प्रकाश से अन्धकार की ओर ले जाता है-वह धर्म नहीं हो सकता, न वह गुरु हो सकता है और न भगवान् ही । यदि इस बात को स्वीकार किया जा सकता है तो यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि भगवान् ऋषभदेव तत्कालीन जनता को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले गए थे; प्रकाश से अन्धकार की ओर कदापि नहीं । सम्यक्त्व यह माना कि भगवान् ऋषभदेव ने प्रारम्भ में जो कुछ भी शिक्षा दी, वह गृहस्थ अवस्था में दी थी । परन्तु उस समय उन्हें कौन-सा सम्यक्त्व प्राप्त था ? शास्त्रों के अनुसार उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त था । इसका अर्थ यह है कि उनकी विचार-सृष्टि में लेशमात्र भी मैल नहीं था । जहाँ कहीं भी थोड़ी-बहुत मलिनता होती है, वहाँ क्षयोपशम- सम्यक्त्व होता है । मलिनता की न्यूनाधिकता के कारण क्षयोपशम सम्यक्त्व अनेक प्रकार का होता है, परन्तु क्षायिक सम्यक्त्व पूरी तरह पवित्र और पण्डितैः । परीक्ष्य भिक्षवो ! ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात् ।" ६ " न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः ।" ७ जैन दर्शन में विचार-शुद्धि की विकास-भूमिका को सम्यक्त्व कहते हैं । इसके क्षायिक, क्षयोपशम आदि अनेक भेद हैं । जब विचार दर्शन सर्वथा शुद्ध होता है, सत्य-निष्ठा सर्वथा पवित्र होती है, तब क्षायिक सम्यक्त्व होता है। यह 'विचारशुद्धि' की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है । क्षयोपशम में जैसे अतिचार दूसण लग जाते हैं, वैसे क्षायिक में नहीं लगते। वह सर्वथा निदूषण है । ५ " तापाच्छेदान्निकषात्सुवर्णमिव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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