________________
३२४
अहिंसा-दर्शन
परम्परा में सर्वसम्मत है । और आगम के मूल पाठ में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है।
इस प्रकार देखा जाता है कि खेती-वाड़ी इधर (कर्म-भूमि के प्रारम्भ में) भी महारम्भ से बचाती है और जब उत्सपिणी का काल-चक्र शुरू होता है, तब भी वही महारम्भ से बचाती है। पत्र, पुष्प, फल और अन्न आदि वनस्पतियाँ आखिर किसके प्रतीक हैं ! वे अल्पारम्भ के उज्ज्वल प्रतीक हैं और महारम्भ को रोकने के प्रामाणिक चिह्न हैं।
__इस तरह दोनों ही काल-चक्रों में जब वनस्पतियाँ पैदा हो जाती हैं और खेती विकसित होती है तो मानव-समाज महाहिंसा से बच जाता है।
जब ऐसा महान् आदर्श प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में प्रतिपादित हुआ करता है, तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि जैन-धर्म फल एवं अन्न के उत्पादन को महारम्भ कहता है ? क्या भगवान् ऋषभदेव ने जनता को महारम्भ का कार्य सिखाया था ? वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। यह कोई आवेश अथवा एकान्तभाव से प्रभावित विचार नहीं है, अपितु हमारा जो चिंतन है और शास्त्रों को गहराई से अध्ययन करने के बाद हमारी जो सुनिश्चित धारणाएँ बनी हैं, उन्हीं को प्रस्तुत करने की कोशिश है ।
जैन-धर्म इतना आदर्शवादी तथा यथार्थवादी धर्म है कि उसने अन्तरंग की बातों को भलीभाँति समझा और तदनुसार कहा है कि यदि किसी क्षुधात को अन्न का एक कण दे दिया तो मानो, उसे प्राणों का दान दे दिया । अन्न-पुण्य
स्थानांग आदि शास्त्रों में नौ प्रकार के विभिन्न पुण्यों के वर्णन हैं ! उनमें भी सबसे पहले 'अन्न-पुण्य' बतलाया गया है और नमस्कार-पुण्य को सबसे आखिर में डाल दिया गया है ; क्योंकि जब पहले अन्न पेट में पड़े, तो पीछे नमस्कार करने की सूझे । जब पेट में अन्न ही नहीं होता और उससे लिए हृदय तड़पता रहता है, तो कौन किसको नमस्कार करता है ?
अतः पुण्य-साधना के द्वार पर सबसे पहले अन्न-पुण्य ही खड़ा है, और दूसरे सब पुण्य उसके पीछे चले आ रहे हैं । अत: अन्न के उत्पादन को भी महारम्भ और नरक का मार्ग बताना, बुद्धि का विकार नहीं तो और क्या है !
वैदिक-धर्म के उपनिषद् कहते हैं-'अन्न प्राण है।'१० इस सम्बन्ध में सुविख्यात संत नरसी मेहता ने भी कहा है-'गोपाल, अब भूखे से भजन नहीं होगा ! लो, यह अपनी कंठी और यह लो अपनी माला : अब तो रोटी की माला जपूंगा और सबसे पहले उसी के लिए प्रयत्न करूंगा ।११
६ 'अन्नदान महादानम्' १० अन्तं वै प्राणाः' ११ “भूखे भजन न होहि गोपाला, यह लो अपनी कंठी माला।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org