Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 339
________________ ३२२ अहिंसा-दर्शन है तो क्या उपाय करेगा ? क्या वह उन्हें सदा के लिए आमरण अनशन-संथारे, के रूप में 'वोसिरे-वोसिरे' करा देगा ? यदि नहीं, तो वे भूखे मानव जीवित रह कर क्या करेंगे-क्या खाएँगे ? तब यह प्रश्न कसे हल होगा ? यदि वह उनके जीवन के लिए कोई समुचित व्यवस्था नहीं करेगा तब तो पागल बन कर ही लौटेगा न ? हम साधुओं को नाना प्रकार की रुचि और प्रवृत्ति वाले आदमी हर जगह मिलते रहते हैं । कोई वनस्पति-भोजी मिलते हैं तो कभी कोई मांसाहारी भी मिल जाते हैं। जब मांसाहारी मिलते हैं और हम उनसे मांसाहार का त्याग कराना चाहते हैं तो उनसे उनकी अपनी भाषा में यही कहना होता है कि-"प्रकृति की ओर से धात्य का कितना विशाल भण्डार भरा मिला है !" यदि कोई कर्त्तावादी मिलता है तो उससे कहा जाता है कि-"ईश्वर ने फल, फूल आदि कितनी शानदार सुन्दर चीजें अर्पण की हैं ! ये सब चीजें ही इन्सान के खाने की हैं, मांस नहीं।" यह कोई आवश्यक नहीं है कि यही शब्द कहे जाएँ, पर एकमात्र आशय यही रहता है कि उन मांसाहारियों को किसी प्रकार समझाया जाए । साधु-भाषा के नाते यद्यपि हम लोग बहुत कुछ बच कर बोलते हैं, फिर भी घूम-फिर कर आखिर बात तो यही कही जाती है कित्रस जीव की हिंसा करना, पशुओं को मारना 'महारम्भ' है और उसके बजाय खेतीबाड़ी से जीवन-निर्वाह करना ‘अल्पारम्भ है । - इस प्रकार समझा-बुझा कर मैंने सैकड़ों आदमियों को मांस खाने का त्याग करवाया है । दूसरे साधु भी इसी प्रकार की भावपूर्ण भाषा बोल कर मांसाहारियों की हिंसा-वृत्ति छुड़वाते हैं । इस सम्बन्ध में आचार्यों ने भी शास्त्रों में यही कहा है----- "जबकि संसार में इतने अधिक निरामिष खाद्य-पदार्थ उपलब्ध हैं और वे सभी इन्सान के खाने की चीजें हैं। फिर भी जो पदार्थ खाने के योग्य नहीं हैं, वे क्यों खाये जाते हैं ?" अभिप्राय यह है कि फल, फूल, धान्य आदि वनस्पति के उपयोग से ही मांसभक्षण जैसे महापाप को रोका जा सकता है और ये सब खाद्य-पदार्थ कृषि के बिना उपलब्ध नहीं होते। कृषि की देन ____ अपने अहिंसात्मक अमूल्य महत्त्व के नाते कृषि कितनी सुन्दर चीज है ! फिर भी अनेक व्यक्ति कृषि को भी महारम्भ कहते हैं, जबकि कृषि 'अहिंसा' का आदर्श ले कर चली है । उसने मानव-जाति को क्रूर वन्यपशु होने से रोका है, वनवासी भील होने से बचाया है और उसमें आदर्श नागरिकता के बीज डाले हैं । उससे मनुष्य की सामाजिक उन्नति हुई है और जहाँ कृषि नहीं फैली, वहाँ के लोग घोर हिंसक, मांसभक्षी और नरमांस-भक्षी तक, बन गए हैं। उपरिकथित मान्यता के सम्बन्ध में, सम्भव है, प्रगतिवादी कहलाने वाले आज की पीढ़ी के लोग कुछ और कहते हों, किन्तु आपको सूक्ष्मदृष्टि से देखना चाहिए कि जैन-धर्म क्या कहता है ? आप तो श्रेष्ठ बने हैं, उच्च बने हैं, और अन्य मानव बेचारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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