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अहिंसा-दर्शन
यह आवाज सुन कर सम्राट ने पास में बैठे हुए महामन्त्री से पूछा-'क्या जनता ने बगावत कर दी है ?' महामन्त्री ने कहा-'यह बगावत नहीं, क्रान्ति है।' और महामन्त्री के मुंह से निकले हुए 'शब्द' सारे संसार में फैल गए कि-'भूख से बगावत नहीं, इन्कलाब होता है।' यथार्थवादी
भगवान् ऋषभदेव उस भूखी जनता को देख कर कोरे आदर्शवाद में नहीं बहे, न उन सब भूखों को उपवास का उपदेश ही दिया, और न साधु बन जाने या संथारा करने की सलाह ही दी । जैसा कि कुछ लोग कहते हैं :
"बलता जीव बिलबिल बोले, साधु जाय किवाड़ न खोले ।"
मकान में आग लग गई है। उसके भीतर मनुष्य और पशु बिलबिला रहे हैं, फलतः दयनीय कुहराम मच रहा है। ऐसे सयय में पत्थर के दिल भी मौम की माँति पिघल जाते हैं। किन्तु कुछ महानुभावों का फरमान है कि जलने वाले जीवों को बचाने के लिए उस मकान का दरवाजा नहीं खोलना चाहिए । यदि कोई सांकल खोल देता है तो उसे हिंसा, असत्य आदि पाप लग जाते हैं !
अब प्रश्न यह है कि उपर्युक्त भयङ्कर अग्निकाण्ड के समय यदि कोई साधुजी महाराज वहाँ विराजमान हों तो क्या करें? उत्तर मिलता है कि-"संथारा कराएँ, आमरण उपवास कराएँ और उपदेश दें कि--संथारा ले लो और आगे की राह तलाश करो। यहाँ जीने की राह नहीं है !"
यदि कोई सचमुच मनुष्य है, और उसके पास यदि मनुष्य का दिल और दिमाग है, और वह पागल नहीं हो गया है तो कौन ऐसा है, जो मरते हुए जीवों को बचाने के लिए साँकल नहीं खोल देगा? और कौन यह कह सकेगा कि संथारा ले लो ? क्या यह धर्म का मजाक नहीं है ? ये ऐसी शोचनीय स्थितियाँ हैं, जिनके लिए प्रत्येक समझदार आदमी यह कहने का साहस जरूर करेगा कि यह आत्मा, समाज, धर्म और साधु-. पन का दिवाला निकाल देने वाली निराधार एवं मनगढन्त मान्यता है ।
भगवान् ऋषभदेव इस सिद्धान्त पर नहीं चले कि जो भूखा मर रहा है उससे कहा जाए कि-संथारा कर लो, स्वर्ग तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। वहाँ जा कर सुगन्ध लिया करना, उससे तुम्हारी भूख-प्यास की तृप्ति हो जाया करेगी।' उन्होंने इस मार्ग को भूल से भी अंगीकार नहीं किया। वे आचार-विचार से यथार्थवादी थे, और यथार्थवादी होने के नाते उन्होंने सोचा कि जनता को यदि सही रास्ते
जब शरीर मरणासन्न हो, और जीवन-रक्षा के लिए कोई भी सात्विक उपचार कारगर न हो, तो आमरण उपवास करके अपने आपको परमात्म-भाव में लीन कर देना, और प्रसन्नभाव से मृत्यु का वरण करना, जैन-दर्शन में 'संथारा' कहलाता है।
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