Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 355
________________ अहिंसा-दर्शन मंत्री ने इधर-उधर आंखें घुमा कर अत्यन्त सावधानी के साथ देखा, किन्तु उसे कहीं हीरे नजर नहीं आए । तब उसने पूछा-अन्नदाता, हीरे कहाँ हैं ? सम्राट ने कहा- 'तुम्हें मालूम ही नहीं कि हीरे कहाँ पड़े हैं ?' इतना कहकर सम्राट् उछल कर हाथी से नीचे उतरे और धूल में से अन्न के उन बिखरे कणों को उठा कर बड़े प्रेम से खा गए। फिर सम्राट ने कहा- 'अन्न के ये दाने पैरों के नीचे कुचलने के लिए नहीं हैं। इन हीरों का महत्त्वपूर्ण स्थान मुंह के सिवाय और कहीं नहीं है । यही इनके लिए तिजोरी है और सुरक्षित स्थान है ।' सम्राट ने फिर कहा--"जो देश अन्न का अपमान करता है, उसके विषय में जितनी लापरवाही करता है, वह उतनी ही हिंसा करता है, उतनी ही दूसरों की रोटियाँ छीनता है, और दूसरों का गला घोंटता है।" तत्पश्चात् अन्न-पूर्णादेवी साक्षातुरूप में प्रकट हुई और बोली-“राजन्, तुमने मेरा इतना आदर किया है, अतः तुम अपने जीवन में कभी अन्न की कमी महसूस नहीं करोगे। तुम्हारे देश में अन्न का भण्डार अक्षय रहेगा।" अन्न-देवता आरण्यक में भी कहा गया है : "अन्न की निन्दा मत करो, अवहेलना और तिरस्कार न करो।" यही कारण है कि भारत की संस्कृति में जूठन छोड़ना पाप समझा जाता है। यानी जितना भोजन आवश्यक हो, उतना ही लिया जाए और जूठन छोड़ कर मोरियों में व्यर्थ न बहाया जाए। जो जूठन छोड़ते हैं, वे अन्न देवता का जान-बूझकर अपमान करते हैं। इस तरह अन्न का एक-एक दाना सोने के दाने से भी महँगा है। सोने के दानों के अभाव में कोई मर नहीं सकता, परन्तु अन्न के दानों के बिना हजारों नहीं, लाखों ने छटपटा कर प्राण दे दिये हैं। परिस्थितियाँ आने पर ही अन्न का वास्तविक महत्त्व मालूम होता है। जिनके यहाँ अन्न का भण्डार भरा है, वे भले ही अन्न की कद्र न करें । परन्तु एक दिन ऐसा भी आता है, जबकि भण्डार खाली होते हैं और अन्न अपनी कद्र करा लेता है । जीवन-स्रोत यदि अन्न रहेगा-तो धर्म, ज्ञान, विज्ञान सभी जीवित रहेंगे; और यदि अन्न न रहा तो वे सब भी काफूर हुए बिना न रहेंगे । जैन-साहित्य (मूल आगम-साहित्य) का बहुत-सा भाग विच्छिन्न हो गया है । वह कहाँ चला गया, और कैसे चला गया ? इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध उल्लेख है कि सुदूर अतीत में बारह वर्ष का घोर अकाल पड़ा था। उस समय अन्न के एक-एक दाने के लिए मनुष्य मरने लगे थे। उस समय पेट २ देखिए, उपदेश-तरंगिणी। ३ "अन्न न निन्द्यात् ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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