Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 335
________________ ३१८ अहिंसा-वर्शन कर दिया था ? अपने बच्चों की भूख को सहन न कर सकने के कारण ही तो वे अकबर से सन्धि कर अपनी प्यारी जन्म-भूमि की स्वतन्त्रता को खो देने के लिए विवश हो गए थे । जब प्रताप जैसे दृढ़-प्रतिज्ञ और कष्टसहिष्णु व्यक्ति भी भूख के प्रकोप से अपने सुदृढ़ संकल्पों से गिरने लगते हैं और ऐसा काम करने के लिए तत्पर हो जाते हैं, जिसकी स्वप्न में भी वे स्वयं कल्पना नहीं कर सकते थे, तो आज के साधारण आदमियों का तो कहना ही क्या है ? आजकल तो एक दिन का उपवास भी दैवी प्रकोप जैसा अनुभव किया जाता है। यदि हम इन सब बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो पता लगेगा कि भूख वास्तव में कितनी बड़ी वेदना है । कृषि : भूख को समस्या का हल . गृहस्थजीवन में भूख की समस्या को आसानी से हल करने वाली एक चीज है-कृषि-अर्थात् खेती। कृषि से जो उत्पादन होता है, उसी से बहुत से पापों को, जो भयंकर भूख के दरवाजे से सर्वसाधारण की आत्मा में प्रवेश करते हैं, रोका जा सकता है। उन विभिन्न महापापों को रोकने के लिए अतीत काल में भगवान् ऋषभदेव ने और दूसरों ने कृषि आदि के रूप में अथक प्रयत्न किये हैं। किन्तु खेद के साथ कहना होगा कि उनमें आप महापाप और महारम्भ की छाया देखते हैं। आप जीवनरक्षा के लिए तो अन्न खाएंगे, किन्तु जिस अन्न पर जन-जीवन निर्भर है, उसके उत्पन्न करने वाले को महापापी कहेंगे । जो अन्न-उत्पादन का कार्य कर रहे हैं, जब उन्हें महारम्भी-महापापी और उसके फलस्वरूप नरकगामी कहा जाता है, तो किसी भी सहृदय का मन तिलमिला उठता है और हृदय टूक-टूक हो जाता है। हमारे शास्त्र कुछ कहते हैं, हमारी प्राचीन परम्परा कुछ कहती है, किन्तु आज हम दूसरा ही राग अलापते हैं । जैन-संस्कृति समाज को कहीं और ले जाना चाहती है, किन्तु कुछ लोग उसे समझे बिना कहीं अन्यत्र ही भटक रहे हैं । जनहीन मैदान में भटकने वाले यात्री की-सी दुर्दशा आज हमारी हो रही है। - भगवान् ऋषभदेव ने क्या किया था ? क्या उन्होंने अपने समय के लोगों को महापाप और महारम्भ का रास्ता बतलाया था ? कदापि नहीं । आप कहेंगे कि तब वे भगवान् नहीं बने थे । किन्तु क्या आप यह नहीं जानते कि उन्हें मति, श्रुत और अवधि'-ये तीन प्रकार के निर्मल ज्ञान प्राप्त थे। उनका ५. इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान 'मति' है। विशिष्ट चिन्तन-मनन एवं शास्त्र से होने वाला ज्ञान 'श्र त' है । मूर्तिमान रूपी पुद्गल पदार्थों का सीमा सहित ज्ञान 'अवधि' है। ये तीनों ही ज्ञान सम्यग्दृष्टि विवेकशील आत्माओं को होते हैं तो ज्ञान कहलाते हैं और यदि मिथ्यादृष्टि अविवेकी आत्माओं को होते हैं तो अज्ञान, अर्थात् कुज्ञान हो जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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