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मानव-जीवन और कृषि-उद्योग
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छिटका कर नष्ट होने के बजाय एक साथ मर जाना, वे कहीं ज्यादा ठीक समझते हैं । वध और क्षुधा परीषह दोनों में से एक को चुनने को कहा जाए तो वे लोग वध को मंजूर करेंगे । कई लोग रेलों के नीचे कट कर या कूप-तालाब में गिर कर इसीलिए मरते हैं कि उनसे अपनी स्त्री और बच्चों की भूख की पीड़ा नहीं सही जा सकती। वे भूख की वेदना से छुटकारा पाने के लिए ही मरने की वेदना को सहसा स्वीकार कर लेते हैं। एक महान् आचार्य ने ठीक ही कहा है :- "भूख की पीड़ा के समान कोई पीड़ा नहीं है ।"२ मरता क्या नहीं करता?
कोई धनी व्यक्ति इस तथ्य को जल्दी अनुभव नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी स्थिति दूसरे प्रकार की होती है। जब तक वह सुख और समृद्धि की स्थिति में रहता है तब तक वह दुःख की भयंकर स्थिति का ठीक-ठीक अनुभव नहीं कर सकता। किन्तु बंगाल और बिहार के दुष्काल में लोग जब भूख से छटपटाते हुए गिरते थे, तो अपने प्राणों से भी अधिक प्यारे बच्चों को दो-दो रुपये में बेचते हुए नहीं हिचकते थे और दो रोटियों के पीछे स्त्रियाँ भी अपने सतीत्व को नष्ट कर देती थीं। इस प्रमाण से समझा जा सकता है कि भूख के पीछे दुनिया के भारी से भारी दुष्कृत्य और पाप किए जाते हैं । जब भूख लगती है तो मनुष्य उसकी तृप्ति के लिए क्या नहीं कर गुजरता ? मरता, क्या न करता ? आचार्य ने कहा है :-"दुनिया में वह कौन-सा पाप है, जो भूखा नहीं करता है ?"3 धोखा वह देता है, ठगी वह करता है, वह सभी कुछ कर सकता है। और तो क्या, माता और बहनें अपनी पवित्रता तक को बेच देती हैं ! किसलिए? केवल रोटी के लिए।
भूख, वास्तव में एक भयानक राक्षसी है । वह मनुष्य को नृशंस और क्रूर बना देती है । जब वह अपने पूरे जोश में होती है और उसे तृप्त करने के लिये दो रोटी तक नहीं मिल पाती है, तो ऐसी स्थिति में पति और पत्नी तक के सम्बन्ध का भी पता नहीं लगता है । और तो क्या, स्नेहशील माता-पिता भी अपने प्राण-प्यारे बच्चे के हाथ की रोटी छीन कर खा जाते हैं । जब ऐसी स्थिति है तो आचार्य ठीक ही कहते हैं कि भूखा आदमी सभी पाप कर डालता है।
एक जीवनदर्शी दार्शनिक ने कहा है- "भूख के मारे को कुछ भी नहीं सूझता हैं।"४ निरन्तर की भूख ने उसकी ज्ञान-शक्ति को नष्ट कर दिया है।
वह कौन-सी चीज थी, जिसने मेवाड़ के ही नहीं, वरन् समूचे भारत के गौरवस्वरूप महाराणा प्रताप को भी अपनी स्वाधीनता की साधना के पथ से विचलित
२ "खुहासमा नत्थि सरीरवेयणा ।" ३ "बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ?" ४ "बुभुक्षितं न प्रतिभाति किञ्चित् ।"
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