Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

Previous | Next

Page 332
________________ मानव-जीवन और कृषि-उद्योग ३१५ धर्म क्यों ? आखिर, कोई धर्म यह तो बताए कि मनुष्य को करना क्या है ? क्या धर्म, प्रस्तुत जीवन की राह नहीं बतला सकता? क्या, मौत का रास्ता दिखलाने के लिए ही धर्म का निर्माण हुआ है ? उधार का भी अपने आपमें मूल्य तो अवश्य है, परन्तु जिस दुकान में उधार बिक्री का ही व्यापार चलता हो, और नकद बिक्री की बात ही न हो, क्या वह दुकान अपने को स्थिर रख सकेगी ? इसी तरह जो धर्म परलोक के रूप में केवल उधार की ही बात करता है और कहता है कि उपवास करोगे तो स्वर्ग मिल जाएगा ! धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन और तदनुसार कठोर क्रियाकाण्ड करोगे तो स्वर्ग मिल जाएगा ! तीर्थस्थानों का पर्यटन करोगे तो स्वर्ग मिल जाएगा ! किसी से कलह-संघर्ष आदि नहीं • करोगे तो मरने के बाद अमुक राज्य का वैभवरूप फल पा जाओगे। परन्तु जो धर्म यह नहीं बतलाता है कि आप या हम; क्रमशः श्रावक और साधु बन कर जो काम कर रहे हैं, उनका यहाँ क्या फल मिलेगा ? जो धर्म यह नहीं बता सकता कि वर्तमान कर्तव्य का पालन करोगे तो स्वर्ग यहीं पर और इस जीवन में ही उतर आएगाजिससे तुम्हारा समाज, परिवार और राष्ट्र स्वयं ही स्वर्ग बन जाएगा। फिर उस सारहीन धर्म का साधारण जनता क्या उपयोग करे ? सचाई तो यह है कि स्वर्ग में वे प्राणी ही जाएंगे, जिन्होंने अपने सत्कर्म और सदाचार के द्वारा यहीं पर स्वर्ग बना लिया है। जो यहाँ पर स्वर्ग नहीं बना पाए हैं और जो यहाँ पर घृणा, भुखमरी और हाहाकार का नारकीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उन्हें किसी धर्म के द्वारा यदि कभी स्वर्ग मिला भी, तो वह रो-रो कर ही मिलेगा। हँसते-हँसते कभी नहीं मिलने का। कालिख धर्म-सम्बन्धी व्याख्यान में व्याख्याता जो भी धार्मिक विवेचन प्रस्तुत करते हों, जनता उसे केवल सुनने के लिए ही न सुने, अपितु मनन करने के लिए सुने । हो सकता है कि परम्परागत प्रभाव के कारण उनकी बातें अरुचिकर मालूम पड़े, फिर भी उसे उनकी बातों पर चिन्तन-मनन करना ही चाहिए। गम्भीर चिन्तन और मनन के अभाव में कोई धर्म या उसके धर्मानुयायी बदनाम होते हैं । यही बात जैन-धर्म के साथ है । अपने को जैन कहने और समझने वाले आज के जैनों की आचार-विहीनता तथा विवेक-शून्यता के कुपरिणामस्वरूप 'जैन-धर्म' के उज्ज्वल मुंह पर कालिख लग गई है। परन्तु इस दुरावस्था को देख कर जैनों को अधीर हो कर पतन के प्रवाह में नहीं बहना है, बल्कि तत्त्व-ज्ञानियों से सदुपदेश ग्रहण कर अतीत की भूल का प्रायश्चित्त करना है, और पतन के प्रवाह पर पवित्रता का प्रतिबन्ध लगा कर सदाचार के माध्यम से वर्तमान जीवन का पुननिर्माण करना है। ऐसा क्यों ? और किसके लिए ? अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402