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मानव-जीवन और कृषि-उद्योग
एक गिलास पानी पिलाने से अनन्त के लगभग जीव मरे और बचा सिर्फ एक मनुष्य ही। फिर भी भावना की प्रधानता के कारण पानी पिलाने वाले को पाप की अपेक्षा पुण्य अधिक हुआ। जो जीव मरे हैं, वे मारने की हिंसक भावना से नहीं मारे गए हैं । पानी पिलाने वाले की भावना यह कदापि नहीं होती कि पानी के ये जीव मर नहीं रहे हैं, अतः यदि कोई अतिथि आ जाए तो उसे पानी पिला कर इन्हें मार डालूं । उसकी एकमात्र भावना तो पंचेन्द्रिय जीव को मरने से बचाने की है। उत्तरोत्तर वृद्धि
इस सम्बन्ध में सिद्धान्त भी यह स्पष्टीकरण करता है कि एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा द्वीन्द्रिय जीव को मारने से असंख्य गुना अधिक पाप बढ़ जाता है। और इसी प्रकार उत्तरोत्तर बढ़ते-बढ़ते चतुरिन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय को मारने में असंख्य गुना पाप अधिक होता है।
जब तक इस दृष्टि-बिन्दु पर ध्यान रखा जाएगा, तब तक भगवान् महावीर की अहिंसा और दया ध्यान में रहेगी। यदि इस दृष्टिकोण से कोई विचलित हो जाता है तो वह अहिंसा और दया से भी विचलित हो जाएगा। फिर उसे या तो कोई और दृष्टि पकड़नी पड़ेगी, या हस्ति-तापसों की दृष्टि अंगीकार करनी पड़ेगी । हस्ति-तापसों के सम्बन्ध में सामान्यत: उल्लेख अन्य प्रवचन में किया जा चुका है। उनका मन्तव्य है कि अनाज के प्रत्येक दाने में जब एक-एक जीव मौजूद हैं, तो बहुत-से दाने खाने से बहुत जीवों की हिंसा होती है । उससे बचने के लिए हाथी जैसे एक स्थूलकाय जीव को मार लेना अधिक उपयुक्त है कि जिससे एक ही जीव की हिंसा से बहुत से व्यक्तियों का, या बहुत दिनों तक एक व्यक्ति का निर्वाह हो सके ।'२
भगवान् महावीर ने इस दृष्टिकोण का डट कर विरोध किया था । कारण यह है कि पाप का सम्बन्ध जीवों की गिनती के साथ नहीं, कर्तव्य की भावना के साथ है। पंचेन्द्रिय जीव का घात करने में अत्यधिक निर्दयता और क्रूरता होती है। एक गिलास पानी में जीवों की संख्या भले ही असंख्य हो, फिर भी पानी को पीने वाले और पिलाने वाले में वैसी निर्दय और क्रूर भावना नहीं होती। क्योंकि पानी पीने वाले
और पिलाने वाले, दोनों का लक्ष्यबिन्दु 'रक्षा' है । जो लक्ष्य-बिन्दु 'रक्षा' का पवित्र प्रतीक है, वहाँ दया की विद्यमानता सुनिश्चित है, और जो कार्य-विशेष 'रक्षा' और 'दया' की सीमाओं के अन्तर्गत है, वह अहिंसक है ।
जिस प्रकार अन्न की हिंसा की अपेक्षा प्याज की या अन्य अनन्तकाय की हिंसा बड़ी है, उसी प्रकार अन्न की खेती की अपेक्षा इस खेती में ज्यादा पाप है । फिर भी वह महारम्भ नहीं है, क्योंकि संहार करने के लक्ष्य से, हिंसा के संकल्प से, या क्रूर
१२ हत्थितावसत्ति-ये हस्तिनं मारयित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयन्ति ।
-औपपातिक सूत्र टीका
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