Book Title: Ahimsa Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 314
________________ कृषि : अल्पारम्भ और आर्यकर्म है २९७ कुशल कलाकार उस समय यदि भगवान ऋषभदेव सरीखे मानवता के कुशल कलाकार प्रकट न होते, तो युगलिये आपस में लड़-झगड़ कर ही समाप्त हो जाते । भगवान् ने उन्हें मानव-जीवन की सच्ची राह बतलाई और अपने सदुपदेश से उनके संघर्ष को समाप्त करने का सफल प्रयत्न किया । संकुचित दृष्टिकोण के कारण यह आशंका की जा सकती है कि क्या भगवान् ऋषभदेव उन्हें भोजन नहीं दे सकते थे ? जबकि देव और उनका अधिपति स्वयं इंद्र उनकी आज्ञा में था। वे आज्ञा देते तो उन्हें भोजन मिलने में क्या देर लग सकती थी? परन्तु ऐसा करने से भूखों की आवश्यकताएँ तब तक पूरी होती रहतीं, जब तक भगवान् रहते । इसीलिए भगवान् ने सोचा-मेरे जाने के बाद वही द्वन्द्व, संघर्ष, लड़ाईझगड़ा और मार-काट मचेगी। फिर वही समस्या खड़ी होगी। अतएव भगवान ने उन्हें हाथों से परिश्रम करना सिखाया। उन्होंने कहा-'तुम्हारे हाथ स्वयं तुम्हारी सृष्टि का सुन्दर निर्माण कर सकते हैं, और यह निर्माण तुम्हारे सुखद जीवन का आधार होगा।' इस प्रसंग पर मुझे अथर्ववेद-कालीन एक वैदिक ऋषि की बात याद आ रही है, जिसने कहा था-"यह मेरा हाथ ही भगवान् है; बल्कि मेरा हाथ भगवान् से भी बढ़कर है।" वास्तव में हाथ ही महान् ऐश्वर्य का भंडार है, यदि उसकी उपयोगिता को भली-भांति समझ लिया जाए ! __ इस प्रकार भगवान् ने युगलियों के हाथों से ही उनकी अपनी समस्या सुलझाई । भगवान् ने केवल उन युगलियों की समस्या को ही नहीं सुलझाया, बल्कि आज के मानव-जीवन की जटिल समस्या को भी अधिकांशतः हल किया। भगवान् की इस अपरिमित अनुकम्पा के प्रति किन शब्दों में कृतज्ञता प्रकट की जा सकती है ? मानवजाति के उस महान् त्राता की प्रतिभा और दयालुता का वर्णन किन शब्दों में किया जा सकता है ? जब तक मनुष्य जाति इस पृथ्वी तल पर मौजूद रहेगी और सारी मानव सृष्टि मांसभोजी नहीं हो जाएगी, भगवान् की उस असीम दया के प्रति आभारी वह रहेगी। प्रायः ऐसा सुना जाता है-खेती तो महारंभ है ! क्योंकि भगवान् स्वयं गृहस्थाश्रम में थे, इसलिए उन्होंने जनता को महारंभ की शिक्षा दी। खेती महारंभ नहीं । पर, गृहस्थाश्रम में होने के कारण यदि उन्होंने महारंभ रूप खेती सिखाई तो वे पशुओं को मार कर खाने की शिक्षा भी दे सकते थे। फिर उन्होंने क्यों नहीं कह ४ "अयं मे हस्तो भगवान्, अयं मे भगवत्तरः ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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